आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

An Argument About Horses: Kedarnath Singh

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बढ़ई और चिड़िया

वह लकड़ी चीर रहा था

कई रातों तक
जंगल की नमी में रहने के बाद उसने फैसला किया था
और वह चीर रहा था

उसकी आरी कई बार लकड़ी की नींद
और जड़ों में भटक जाती थी
कई बार एक चिड़िया के खोते से
टकरा जाती थी उसकी आरी

उसे लकड़ी में
गिलहरी की पूँछ की हरकत महसूस हो रही थी
एक गुर्राहट थी
एक बाघिन के बच्चे सो रहे थे लकड़ी के अन्दर
एक चिड़िया का दाना गायब हो गया था

उसकी आरी हर बार
चिड़िया के दाने को
लकड़ी के कटते हुए रेषों से खींचकर
बाहर लाती थी
और दाना हर बार उसके दाँतों से छूटकर
गायब हो जाता था

वह चीर रहा था
और दुनिया दोनों तरफ
चिरे हुए पटरों की तरह गिरती जा रही थी

दाना
बाहर नहीं था
इसलिए लकड़ी के अन्दर जरूर कहीं होगा
यह चिड़िया का खयाल था

वह चीर रहा था
और चिड़िया खुद लकड़ी के अन्दर
कहीं थी
और चीख रही थी

धूप में घोड़े पर बहस

वे तीनों धूप में बैठे थे
और घोड़े पर बहस कर रहे थे

वह सुन्दर है – एक ने कहा
गलत – दूसरे ने काटा
वह सिर्फ ठोस है – बेहद ठोस

तीसरा जो कि अब तक चुप था
धीरे से बोला – वह इतना ठोस है
कि उस पर बहस नहीं हो सकती

क्यों नहीं हो सकती – पहला चीखा
ज़रूर हो सकती है – दूसरे ने हामी भरी

तीसरा चुप था
बल्कि कहना चाहिए खुश था
वह बीड़ी की राख झाड़ते हुए बोला –
मगर घोड़ा कहाँ है?
तो क्या हुआ
घोड़े पर बहस तो हो सकती है
पहले ने कहा

हो सकती है मगर मुझे दुख है
मैंने बरसों से घोड़ा नहीं देखा –
तीसरे की आवाज़ में एक अजीब-सा दर्द था

घोड़े कम होते जा रहे हैं
पहले ने कहा

ठीक – मगर यही तो सवाल है
कि घोड़े कम क्यों होते जा रहे हैं
दूसरे ने उत्तर दिया

वे बिक जाते हैं – पहले ने कहा

मगर कौन खरीदता है इतने सारे घोड़े
इसका आँकड़ा कहीं तो होगा –
दूसरे का सवाल था

है – मगर वह हमें नहीं मिल सकता
पहले ने ‘है’ पर जोर देते हुए कहा

क्यों – क्यों नहीं मिल सकता –
दूसरा काँप रहा था

इसलिए कि घोड़े
आँकड़ों को रौंद देते हैं
पहले ने कहा
पहले की आवाज इतनी धीमी थी
मानो वह दूसरे से नहीं
खुद से कह रहा हो

तीसरा जो कि अब तक चुप था
एकदम चीखा – दोस्तो
एक दिन आँकड़े उठेंगे
और घोड़ों को रौंद डालेंगे

इसके बाद लम्बे समय तक
कोई बहस नहीं हुई.

सुई और तागे के बीच में

माँ मेरे अकेलपन के बारे में सोच रही है
पानी गिर नहीं रहा
पर गिर सकता है किसी भी समय
मुझे बाहर जाना है
और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है

यह तय है
मैं जाऊँगा तो माँ को भूल जाऊँगा
जैसे मैं भूल जाऊँगा उसकी कटोरी
उसका गिलास
वह सफेद साड़ी जिसमें काली किनारी है
मैं एकदम भूल जाऊँगा
जिसे समूची दुनिया में माँ
और सिर्फ मेरी माँ पहनती है

उसके बाद सर्दियां आ जायेंगी
और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं
तो माँ थोड़ा और झुक जाती है
अपनी परछाई की तरफ
ऊन के बारे में उसके विचार
बहुत सख्त हैं
मृत्यु के बारे में बेहद कोमल
पक्षियों के बारे में
वह कभी कुछ नहीं कहती
हालाँकि नींद में
वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है

जब वह बहुत ज़्यादा थक जाती है
तो उठा लेती है सुई और तागा
मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं
तो सुई चलाने वाले उसके हाथ
देर रात तक
समय को धीरे-धीरे सिलते हैं
जैसे वह मेरा फटा हुआ कुर्ता हो

पिछले साठ बरसों से
एक सुई और तागे के बीच
दबी हुई है माँ
हालाँकि वह खुद एक करघा है
जिस पर साठ बरस बुन गये हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे
साठ बरस !

शब्द

ठण्ड से नहीं मरते शब्द
वे मर जाते हैं साहस की कमी से
कई बार मौसम की नमी से
मर जाते हैं
शब्द

मुझे एक बार एक खूब लाल
पक्षी जैसा शब्द
मिल गया गाँव के कछार में
मैं उसे ले आया घर
पर ज्योंही वह पहुँचा चौखट के पास
उसने मुझे एक बार
एक अजब-सी कातर दृष्टि से देखा
और तोड़ दिया दम

तबसे मैं डरने लगा शब्दों से
मिलने पर अक्सर काट लेता था कन्नी
कई बार मूँद लेता था आँख
जब देखता था कोई चटक रंगों वाला
रोयेंदार शब्द बढ़ा आ रहा है मेरी ओर

फिर धीरे-धीरे इस खेल में
मुझे आने लगा मज़ा
एक दिन बिल्कुल अकारण
एक खूबसूरत शब्द को दे मारा पत्थर
जब वह धान के पुआल में
साँप की तरह दुबका था
उसकी सुंदर चमकती आँखें
मुझे अब तक याद हैं

अब इतने दिनों बाद
मेरा डर कम हो गया है
अब शब्दों से मिलने पर
हो ही जाती है पूछापेखी
अब मैं जान गया हूं उनके छिपने की
बहुत-सी जगहें
उनके बहुत-से रंग
मैं जान गया हूँ
मसलन मैं जान गया हूँ
कि सबसे सरल शब्द वे होते हैं
जो होते हैं सबसे काले और कत्थई
सबसे जोखिम भर वे जो हल्के पीले
और गुलाबी होते हैं
जिन्हें हम बचाकर रखते हैं
अपने सबसे भारी और दुखद क्षणों के लिये
अक्सर वही ठीक मौके पर
लगने लगते हैं अश्लील
अब इसका क्या करुँ
कि जो किसी काम के नहीं होते
ऐसे बदरंग
और कूड़े पर फेंके हुए शब्द
अपनी संकट की घड़ियों में
मुझे लगे हैं सबसे भरोसे के काबिल

अभी कल की बात है
अँधेरी सड़क पर
मुझे घेर लिया
पाँच-सात स्वस्थ और सुंदर शब्दों ने
उनके चेहरे ढँके हुए थे
पर उनके हाथों में कोई तेज
और धारदार-सी चीज थी
जो चमक रही थी बुरी तरह
अपनी तो भूल गई सिट्टी-पिट्टी
पसीने से तर
मैं कुछ देर खड़ा रहा उनके सामने
अवाक्
फिर मैं भागा
अभी मेरा एक पाँव हवा में उठा ही था
कि न जाने कहाँ से एक कुबड़ा-सा शब्द
हाँफता हुआ आया
और बोला – ‘चलो, पहुँचा दूँ घर!’

बिना ईश्वर के भी

यह कितना अद्भुत है
कि दस बजे हैं
और दुनिया का काम चल ही रहा है
बिना ईश्वर के भी
बसें उसी तरह भरी हैं
उसी तरह हड़बड़ी में हैं लोग
डाकिया उसी तरह चला जा रहा है
थैला लटकाये हुए

बैंक खुल ही जाते हैं समय पर
घास उगती ही रहती है
हर हिसाब – चाहे वह जितना उलझा हो –
मिल ही जाता है अंत में
जिसे जीना है वह जीता है
जिसे मरना है वह मर ही जाता है
बिना ईश्वर के भी

यह कितना अद्भुत है
कि ट्रेनें खुलती हैं और पहुँच ही जाती हैं
किसी न किसी स्टेशन पर देर-सवेर
चुनाव होते ही रहते हैं
वायुयान उड़ते ही रहते हैं आसमान में
बिना ईश्वर के भी

बिना ईश्वर के भी घोड़े
हिनहिनाते ही रहते हैं
नमक बनता ही रहता है समुद्र में
एक चिड़िया दिनभर भटकने के बाद
लौट ही आती है अपने खोंते में
बिना ईश्वर के भी

बिना ईश्वर के भी
उतना ही गाढा है मेरा दुःख
उतने ही काले हैं उस स्त्री के बाल
जिसे दस साल पहले प्यार करता था
उतनी ही कशिश है
इस घर से हर बार बाहर जाने
और फ़िर लौट आने में

यह कितना अद्भुत है
कि पानी भगा जा रहा है
और वहां वह पुल बीच धार में
बाँहें उठाये हुए
उसी तरह खड़ा है
बिना ईश्वर के भी

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One comment
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  1. this is a great initiative and effort has been started to brought up some major poets like kedarnath singh and others as well in front of the common man.as we know in this capitalist mode of production the place of poetry is shrinking.the very idea of presenting translated works also would create a broader space in the mind of those who are lesser ex poser of Hindi.i hope this nice effort will go on .
    thanks
    pradeep kumar singh,
    Phd
    j n u, New Delhi.

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