आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

नक्शा-ए-हिंदोस्तान में दास्तान-ए-गंगौली और दास्तान-ए-गंगौली में नक्शा-ए–हिंदोस्तान: हिमांशु पंड्या

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आधा गाँव उपन्यास की पहली पंक्ति है, “गाजीपुर के पुराने किले में अब एक स्कूल है, जहां गंगा की लहरों की आवाज तो आती है, लेकिन इतिहास के गुनगुनाने या ठंडी सांसें लेने की आवाज नहीं आती.” अजीब सी पंक्ति नहीं है? गंगा की लहरें जितनी मूर्त और यथार्थ हैं इतिहास उतना ही अमूर्त. और फिर गंगा की लहरों का क्या कोई इतिहास नहीं? बिलाशक है, राही मासूम रज़ा तीसरी ही पंक्ति में बता देते हैं, “गंदले पानी की इन महान धाराओं को न जाने कितनी कहानियाँ याद होंगी.”

दरअसल, राही मासूम रज़ा गंगा की लहरों की कहानियों को इतिहास की संज्ञा नहीं दे रहे हैं, वे उन्हें इतिहास के बरअक्स खड़ा कर रहे हैं. उनका शहर इतिहास से बेखबर है’ (पृ. ११) और यह उसके लिए सबसे बडी नेमत है. यहां ‘इतिहास’ से मेरा आशय उस समरूपीकृत एकरेखीय इतिहास से है जो राष्ट्रवाद के उभार के साथ उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से भारत में तैयार होना शुरु हुआ और जिसकी परिणति भारत और पाकिस्तान नामक राष्ट्रों के उदय में हुई. राष्ट्र जो बकौल बेनेडिक्ट एंडरसन एक ‘कल्पित समुदाय’ है, अपरिहार्यतः अन्य समुदायों को ‘अन्य’ के रूप में चिह्नित करके अपनी विशिष्टता को रेखांकित कर देता है. भारतीय राष्ट्रवाद, राष्ट्र-राज्य के इस यूरोपीय मॉडल के प्रतिरोध में जाकर गैरपश्चिमी आधुनिकता के रास्ते तलाशता हुआ भी अंततः उसी अंधी गली में जाकर गुम हुआ. इसके दो आयाम फिलहाल मेरे लिए चिन्तनीय हैं , एक राष्ट्रीय संस्कृति और दो, राष्ट्रीय भाषा. इस एकरेखीय भँवर में अनेक धाराएँ हैं और इसलिए गंगा की लहरों की अनेक कहानियाँ इस इतिहास के लिए वह बहुलतावादी चुनौती है जिसे खारिज करके ही इसे अपने को स्थापित करना है. आधा गाँव इसी विस्थापन के शनैः शनैः घटित होने की दास्तान है. ऊपर उल्लिखित दो आयामों के सन्दर्भ में आधा गाँव को  देखने का प्रयास इस लेख में किया जा रहा है

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“ई मूआ मौलवी सठिया गया है का? ल्यो, का हम्मे ई ना मालुम कि अल्लह एक है? ई त हमारे मच्छ्नों को मालुम है.” अल्लाह के एक होने पर चार घंटे मजलिस सुनने के बाद वाचक की माँ की यह प्रतिक्रिया थी और इसके बाद वाचक बताता है कि शिया औरतें मजलिसों में केवल इमाम हुसैन और उनके घरवालों की विपदा सुनने आती हैं…”

इस्लाम और अन्य किसी भी धार्मिक अस्मिता के संदर्भ में यह देखा जा सकता है कि वे इलाकाई आधार पर बदलती रहती हैं और दूसरे, उनके भीतर भी कई द्वंद्व देखे जा सकते हैं. राष्ट्रवाद सामुदायिक पहचान की तलाश में आसानी से धर्म की ओर मुड़ता है.यह धर्म भी राष्ट्रीयता के खोल में कट्टरवाद की ओर झुका होता है. सेक्युलर प्रतीत हो रहे राष्ट्रवाद में भी बहुसंख्यक वर्ग के मिथक और प्रतीक राष्ट्रीय प्रतीकों के रूप में जगह बना लेते हैं. राही मासूम रज़ा उस सांस्कृतिक पहचान को तलाशने का प्रयास करते हैं जो जमीन से उपजी है, धर्म से नहीं. इस्लामिक राष्ट्रवाद की ओर जाते ही अशरफुल्लाह खान को इल्हाम होता है कि ताज़ियादारी बुतपरस्ती है. (पृ. ३६७) दूसरी ओर छिकुरिया है जो मास्टर साहब की इस बात को मानने से इन्कार कर देता है कि उसका बाप वतन की राह में शहीद हुआ है क्योंकि शहीद तो एक ही हुए हैं – इमाम साहब! मास्टर द्वारा अनभिज्ञता जताने पर तफसील से मोहर्रम का बखान कर देता है, “इमाम साहब बड़ा जब्बर होवन. दस दिन की खातिर हियाँ आवे ला. मार ताज़िया उठे ला. परसाद बँटे ला. लकड़ी का अखाडा़ जम्मे ला…. ”

“अरे तूँ अमर शहीद की संतान होके मुसलमानन के इमाम साहब का बखान कर रह्यो.”

“हई ला भैया! अरे हम का बुरबक्क हईं. इमाम साहब के मुसलमान ना कहे के चाही. न ही तो हमनी के भोग चढावे देता मियाँ लोग औरो इमाम साहब ओके स्वीकारो करताँ.” (पृ. २१५)

मास्टर साहब के लाख समझाने पर भी छिकुरिया नहीं मानता कि इमाम साहब मुसलमान थे और न ही यह कि मुसलमानों ने भारत को तहसनहस किया है, मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनवा ली हैं. यहाँ लेखक/ वाचक की टिप्पणी काबिले गौर है-

मगर मास्टर साहब ने इतिहास भी पढ़ रखा था, बोले,”औरंगज़ेब बादशाह एक दो मंदिरों को भ्रष्ट किहिस है का?”

“हम औरंगज़ेब के ना जानी ला!” छिकुरिया ने कहा, “बाकी हम जहीर मियाँ औरी कबीर मियाँ औरी मंजूर मियाँ और अनवारुलहसन राकी के जानी ला. हम ना मानब आपकी बात. और जेकर नाम लेन बाडी़, ऊ साल होई कौनो बदमास….” (पृ. २१५)

गंगौली का इतिहास, राष्ट्रवादी इतिहास के सामने सीना तानकर खडा़ हो गया है. इसी गंगौली का परसरमुवा है जो, “जब शहर में सुन्नी लोग हरमजदगी कीहन कि हम हज़रत अली का ताबूत न उठने देंगे, काहे को कि ऊ में शीया लोग तबर्रा पढ़त हुएँ त परसरमुवा ऊधम मचा दीहन कि ई ताबूत उठ्ठी और ऊ ताबूत उठा.” (पृ. १९२)

हज़रत अली का ताबूत इस्लामिक परंपरा नहीं है, वह गंगौली की परम्परा है और इसीलिए सुन्नियों के मुकाबले में खड़ा होना शियाओं के साथ परसरमुवा के लिए भी उतना ही अहम सवाल था. खेल देखिए कि कांग्रेस का नेता बनने के बाद वही परसरमुवा हम्माद अली से सौदेबाज़ी करता है कि चूँकि जनसंघ और महासभा के बढते कोप से उन्हें वही बचा सकता है इसलिए वे अपने लोगों को किसान सभा की ओर जाने से रोकें. (पृ.  ४२४)

आधा गाँव धीरे धीरे राष्ट्रवादी नारों और पहचानों के जड़ जमाने की कथा है. गंगौली में कभी अब्दुल अली ने जब नारा दिया – नारा ए तदबीर तो चुप्पी छा गयी थी और” बिरादरी तो बकर- बकर उसका मुँह देखती रह गई. बिरादरी को यह मालूम नहीं था. बिरादरी तो ‘बोल मुहम्मदी – या हुसैन ‘ के अलावा कोई नारा जनती ही नहीं थी.” (पृ. १६५) इस बिरादरी में बैठे लोग चाहे सारे मुसलमान क्यों न हो पर अब्दुल अली के ‘बिरदराने इस्लाम ‘ के नाम पर जारी अपील से वे अपने आप को नहीं जोड़ पाए थे और उलटे नाराज़ ही हुए कि इस गांव के चौधरी तो खलीफ़ा नुरुल हसन हैं, किसी और को टांग अडाने से मतलब! आज इसी गंगौली में लड़कों का जुलूस नारे लगता घूम रहा है, “नारा ए तदबीर! अल्लाहो अकबर! काइदे आज़म! जिंदाबाद! मुस्लिम लीग! जिंदाबाद!” (पृ. ३२०) इसी भीड़ का हिस्सा बना दुल्लन जब नारा लगता हुआ घर में घुसता है, “लेके रहेंगे पाकिस्तान!” फ़ुन्नन मियाँ तड़ाक से पूछते हैं, “के से लेबे “इस सवाल पर दुल्लन भी चकरा जाता है. दरअसल यह सवाल तो फ़ुन्नन मियाँ को भी परेशान किए हुए है, आख़िर पाकिस्तान मांगा किससे जा रहा है और किस लिए जा रहा है ? यह कल्पना में बसा राष्ट्र जब आकार लेगा तो जमीन पर दावा करेगा या लोगों पर और इसने किसी एक के लिए दूसरे को त्याग दिया तो जमीन और लोगों के जुड़ाव का क्या होगा? मैं यहाँ फ़ुन्नन मियाँ और अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के तालीमयाफ्ता नौजवान फारुख की बातचीत का एक टुकड़ा पेश करना चाहूँगा:

“काहे भैया, तोरे पाकिस्तान का का हाल है?”

“वह तो बन रहा है.”

“काहे न बनिहे भइया. तू कहि रहियो तो जरूर बनिहे. बाकी ई गंगौली पाकिस्तान में जईहे कि हिन्दुस्तान में रहिबे?”

“ई तो हिन्दुस्तान में रहेगी. पाकिस्तान में तो सूबा सरहद, पंजाब, सिंध और बंगाल होगा. और कोशिश कर रहे हम लोग कि मुस्लिम युनीवर्सीटी भी पाकिस्तान में हो जाय.”

“गंगौली के वास्ते ना करिह्यो कोशिश?”

“गंगौली का क्या सवाल है?”

“सवाल न है त हम्में पाकिस्तान बनने या न बनने से का!”

“एक इस्लामी हुकूमत बन जायेगी.”

“कहीं इस्लामू है कि हुकूमतै बन जहिये. ऎ भाई, बापदादाओं की कबर हियाँ है, चौक इमामबाड़ा हियाँ है, खेती बाडी हियाँ है. हम कौनो बुरबक हैं कि तोरे पाकिस्तान ज़िन्दाबाद में फँस जाएँ. ” (पृ. १९१)

यही वह अजब उलझा सिरा है जिसके तार सन २००८ में भी सुलझ नहीं पाए हैं. राष्ट्रवाद के लिए संगठित एकता जुटाने का तकाजा था कि किसी ना किसी सामुदायिक आधार को चुना जाए और अब जमीन पर दावा किया जाए या समुदाय पर दोनो ही हालात में ‘अन्य’ को अपने ही घर में बेगाना होना जाना था. सन २००८ के धर्मनिरपेक्ष भारत में भी जिस दिन कोई बम फटे मुस्लिम समुदाय के अनेक तबकों को फौरन अगले ही दिन उसका सार्वजनिक विरोध दर्ज कर अपनी भारतीयता को पुष्ट करना होता है. राही मासूम रज़ा शायद जमीन और समुदाय के द्वंद्व को जानते थे इसलिए वे भारतीयता का कोई दावा नहीं करते, वे दावा करते हैं गंगौली पर:

“जनसंघ का कहना है कि मुसलमान यहाँ के नहीं हैं. मेरी क्या मज़ाल है कि मैं उसे झुठलाऊँ. मगर यह कहना ही पड़ता है कि मैं गाजीपुर का हूँ. गंगौली से मेरा संबंध अटूट है. वह एक गांव ही नहीं है. वह मेरा घर भी है. घर! यह दुनिया की हर बोली हर भाषा में है और यह उसका सबसे खूबसूरत शब्द है. इसलिए मैं उस बात को फिर दोहराता हूँ. मैं गंगौली का हूँ क्योंकि वह केवल गांव नहीं है. ‘क्योंकि’- यह शब्द कितना मजबूत है. और इसी तरह के हजारों हजार ‘क्योंकि’ और हैं और कोई तलवार इतनी तेज़ नहीं हो सकती कि इस ‘क्योंकि’ को काट दे! और जब तक यह क्योंकि जिंदा है मैं सैयद मासूम रज़ा आब्दी गाजीपुर का ही रहूँगा. चाहे मेरे दादा कहीं के रहे हों. और किसी को मैं यह हक़ नहीं देता कि वह मुझ से यह कहे, “राही तुम गंगौली के नहीं हो. इसलिए गंगौली छोड़कर, मिसाल के तौर पर रायबरेली चले जाओ. “क्यों चला जाऊँ साहब मैं? मैं तो नहीं जाता.” ( पृ. ३६३)

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“लडाई हुई अब्बा से तो आप हमको क्यों डांट रहे हैं?”

“अब्बा कहे लगियो!” फुन्ननमियाँ आपे से बाहर हो गए, “तू हो अपने बाप को अब्बा कहे लगियो तो शरीफ़ लोगन के लड़के अपने बाप को का कहके पुकारि है!” (पृ. ४१७)

जाति,वर्ग के भेदों को लांघकर गंगौली के लोगों में जो एक सूत्रता दिखाई देती है वो है ज़ुबान.गंगौली के सभी लोग भोजपुरी बोलते हैं. राही मासूम रज़ा एक जगह उसे ‘भोजपुरी उर्दू’ की संज्ञा देते हैं और उर्दू को ‘खडी उर्दू’ (पृ. २३). उनका तर्क ठीक है क्योंकि इसके लिए नागरी लिपि भी अग्राह्य है. सिब्तू मियाँ और अब्बू सईद मियाँ की भतीजी मन्नो जब पहली बार खड़ी होती है तो उसकी लिखावट सभी को चौंका देती है. हिंदी –  इस ‘निखौदी’ ज़बान – का नाम उन्होंने पहली बार सुना है! “नौहा वही था, लफ्ज वही थे, लहजा वही था. बस एक लिपि की अजनबियत ने बीबियों को चिढा दिया था.चुनाँचे न तो किसी की आँख नम हुई और न किसी ने बैन किया.” (पृ. ३७५) दरअसल भोजपुरी हिंदी भी यही है क्योंकि परसराम जब इस भोजपुरी बोली में बोलते-बोलते खड़ी बोली का प्रयोग करता है तब फ़ुन्नन मियाँ टोकते हैं, “तै तो कांग्रेसी होकर अपनी जबनियो भूल गया.” (पृ. ३३५) इसके जवाब में परसराम का तर्क है, “सहरवालन आपन गँवरऊ बोली कईसे बोलीं. आखिर चुनाव-उनाव लडे़ के होई. त का देहली की पालिमिन्ट में अइली – गइलीसे काम चल्ली? त सिक्खत बाडीं सहरवालों की बोली.” असल तर्क यहीं है, गंगोली में हैं तो गंगोली की साझा ज़ुबान बोली जाए, बाहर/ शहर के सम्पर्क में रह आए तन्नू या अब्बास भी जब गंगोली में होते हैं तो यहीं ज़ुबान बोलते हैं वरना डपटे भी जाते हैं. सबसे मजेदार यह है कि ऊपर वर्णित प्रसंग में परसराम के जाने के बाद उसकी तारीफ भी इसीलिए होती है, “कइसी साफ जबान बोल रहा. शीन काफ की इक्को गलती ना है.” (पृ३३७)

भाषा की बहुलता का सम्मान इस चेतना का खास अंग है. फुन्नन मियाँ न संगीतज्ञ है न शिक्षित पर सोजखानी की परंपरा ने उन्हें आवाज के उतार चढाव और तालसम से परिचित करा दिया है. सारे मर्सिये ज़बानी याद रहने के बावजूद वह हाथों में मरसिया जरूर रखते हैं. मरसिये में उनका बाजू बना शम्मू जब पाता है कि हाथों में मरसिया कोई और है और वे गा कुछ और रहे हैं तो वे कोहनी मारकर कहते है, “ऊ मत पढो जउन लिखा है. तउन पढो जउन हम पढ रहें…” और इसके बाद लेखक की पंक्ति या कहें नैरेटर की टिप्प्णी है- बात इल्म से ज्यादा परंपरा की थी. (पृ. ११०) परंपरा का यही खयाल है कि जब बड़े खान साहब की छोटी बेटी की शादी में गुलाबीजान के गाने के वक्त अशराफुल्ला साहब का पाला हुआ लौंडा ठिठोली और हँसी कर रहा था तो फुन्नन मियाँ ने उठकर एक ऐसा तमाचा मारा कि उस्ताद जी के बायें की गमक दब गई. महफिल में सन्नाटा छा गया.” (पृ. १०८) जब सब लोगों की निगाहें खान साहब पर टिकी हुई थी कि वे ऐसे में क्या कहते हैं तब फुन्नन मियाँ शांति से कहते हैं, “वह गालिब की गज़ल गा रही थी, भई.” इसके बाद खान साहब को लाख समझाया जाता हैकि फुन्नन मियाँ का थप्पड उस लौंडे़ के मुँह पर नहीं पडा था उनके मुँह पर पडा था, मगर इस तर्क से लाजवाब खान साहब मानने से इन्कार कर देते हैं. यही फुन्नन मियाँ गुलाबीजान से जादा मशहूर चंदाबाई, जो उसके फौरन बाद नाचती और गाती है, के आलाप लेने पर ही कह देते हैं, “इससे तो अच्छा था उस लौंडे़ का नाच देखा जाता!” चंदाबाई घबराकर चुप हो जाती है, “तो फुन्नन मियां उसकी तरफ़ देखकर कहते हैं, “तुम्हारी आवाज अच्छी है…मगर कच्ची है.” (पॄ. १०९)

फुन्नन मियाँ की इसी पारखी दृष्टि के कारण अशरफ़ुल्ला खाँ उनके इतने कायल हैं कि अपनी नयी गज़ल की इस्लाह उन्ही से करवाते हैंऔर इक्कीसवें शेर पर फुन्नन मियाँ की असहमति है, “साहब, हम कोनो पढ़े लिखे तो है नाही. बाकी आशिक के वास्ते सर उठाने का मुहावरा कुछ समझ में ना आया. ऊ सर कटा सकता है, मन्सूर बनकर, सरमद बनकर. ऊ ईसा बनकर सूली पर चढ सकता है. बाकी ऊ सर उठा नहीं सकता.सर उठाना तो मुहोब्बत का कच्चापन साबित करता है जैसे ऊ को अपनी मुहोब्बत की अकड़ है.” ( पृ. १८३) और खान साहब को वह शेर खारिज करना पडता है.

आधा गाँव में मौत से जुडी इतनी त्रासदियाँ हैं कि उसके सामने जिंदगी में घट रही कुछ त्रासदियाँ ओझल हो जाती हैं. ऐसी ही एक त्रासदी अंत में होती है. यहाँ इंसान की नहीं जुबान की मौत का मसला है.ठाकुर जयपालसिंह के यहाँ जश्न की दावत में जब हीराबाई ग़ालिब की गज़ल गाती है, “नुक्ता चीं है गमे दिल उसको सुनाए न बने…” फुन्नन मियाँ ने उसे आगे बढने का मौका नहीं दिया. वह चीखने लगे, “अर तै गालिब की मिट्टी काहे खराब कर रही? मत गा! अरे, पुरबी सुना.” (पृ. ४२७)

पूरी महफ़िल में किसी को फुन्नन मियाँ के ऎतराज़ की वजह समझ नहीं आती. पढ़े लिखे शायर भी झूम रहे है और ये मुछिल्ला बूढा़ चिल्ला रहा है? ‘भगवान इन देहातियों से बचाए.’ पृथ्वीपाल सिंह निर्णयात्मक अंदाज में कहते हैं, “दाग की कौनो गज़ल याद हो त सुना, और जौन उहो न याद होये त फ़िल्म ‘बरसात की रात’ की कव्वाली सुना.” तब फुन्नन मियाँ सर पीटने का इरादा मुल्तवी कर देते हैं. वे समझ चुके हैं कि वक्त बदल गया है. पृथ्वीपाल सिंह के पिता कुँवरपाल को याद करते हुए, जो पढे लिखे नहीं थे पर शीनकाफ़ की गलती नहीं करते थे, वे मानो अपनी हार स्वीकार करते हुए झक मारकर कहते हैं, “अच्छा त अपना गमे दिल सुना! सुना के खत्म कर जल्दी से.”

चाहे वह बालमुकुंद जी की सभा हो या पृथ्वीपाल सिंह की महफ़िल, बदलते वक्त में फुन्नन मियाँ अप्रासंगिक और हास्यास्पद होते चले गए हैं. गंगोली की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान – जो भाषा, धार्मिक प्रतीकों, ऐतिहासिक कथाओं, परम्पराओं, किसी भी मुद्दे पर सामूहिक राष्ट्रीय धारा में विलीन होने से सदा इन्कार करती रही – के सच्चे प्रतिनिधि हैं फुन्नन मियाँ. अब ज़माना हम्माद मियाँ का है जो अपनी बीवियों को भी सिखा चुके हैं कि वे खडी बोली में बोलें. हम्माद मियाँ का बेटा अब्बास अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में पढकर तकरीरें करना सीख गया है और इस बदलते वक्त में जब ज़मींदारों के घरों मॆं खाली बक्सों की चाबियाँ रह गयीं हैं हम्माद मियाँ की दौलत बढती ही जा रही हैं. यह संयोग नहीं है कि वे हम्माद मियाँ गाँव में  उर्दू के सब से बडे़ पक्षधर बनकर सामने आते हैं.

हम्माद मियाँ के लिए उर्दू और परसरमवा के लिए हिन्दी की ओर झुकना उनकी घर आँगन की ज़बान, मादरी ज़बान की कीमत पर है. उनके लिए उर्दू मुसलमान और हिन्दी हिन्दू है पर फुन्नन मियाँ के लिए उर्दू ग़ालिब की जुबां है. अपनी जुबान के लिए इश्क ने ही उनके अन्दर यह तड़प पैदा की है कि वे गालिब की मिट्टी ख़राब होते नहीं देख सकते. फुन्नन मियाँ पूरे उपन्यास में तड़ से अपनी खरीखरी बात कह देनेवाले व्यक्ति रहे हैं, यहाँ पहली बार हम उन्हें चुप होता देखते हैं. मानो फुन्नन मियाँ की सारी बलाएँ तमाम हो गयी हो. महफ़िल से बाहर निकलते ही मर्गे नागहानी उनके सामने आ जाती है. फुन्नन मियाँ के साथ छिकुरिया भी मारा जाता है. इस छिकुरिया का बाप फुन्नन मियाँ के बेटे के साथ वतन की राह में शहीद हुआ था, मगर चिकुरिया ने कभी अपने बाप को शहीद नहीं माना और फुन्नन मियाँ अपने ही बेटे की शहादत के जुर्म में बागी करार दिए जाकर सज़ा काटकर भी स्वतन्त्रता सेनानी होने का कोई दावा पेश नहीं कर रहे थे.

4

ऐसा नहीं है कि गंगौली में मेलजोल के कोई आदर्श प्रतिमान बन गए हैं. वहाँ भिन्नताएं और असमानताएँ स्पष्ट हैं. हाकिम अली कबीर ने तो पाकसाफ बने रहने के लिए दरवाजे पर ही नहाने का हौज़ बनवा रखा है. गुलाम हुसैन जब हरनारायण प्रसाद के लिए मिठाई का टोकरा ले जाते हैं बातों ही बातों में बता देते हैं कि मिठाई झीगुरिया के यहाँ की है और उन्होंने छुई भी नहीं है. चमारों, राकियों, भरों, हज्जामों, जुलाहों की हैसियत के मुकाबले सैयदों, पठानों, ठाकुरों की अकड़ पूरे उपन्यास में देखी जा सकती है लेकिन उपन्यास इसके संकेत देता चलता है कि इस ढहते पितृसत्तात्मक ढांचे से निकल राष्ट्रवादी जामा पहनने वालों ने बारहा नए शक्ति संतुलन को पहचान कर अपना नफ़ा नुकसान तौल लिया था. एक ओर फुन्नन मियाँ हैं जो बगावत के जुर्म में सज़ा कटते हुए माफ़ी मँगाने से इन्कार करते हैं (क्योंकि माफ़ी सिर्फ़ अल्लाह से मांगी जा सकती है! ) और लौटकर उसे गिनाते भी नहीं और दूसरी ओर परसरम्वा है जो गांधी टोपी के लिए गांधी को अपना नेता मान चुका है. “शायद उसे गांधी जी से अधिक इस टोपी की जरूरत थी जिसकी वजह से सरकारी लोग उससे डरने लगे थे. और जिसकी वजह से उसकी इज्ज़त भी बढ़ी थी और आमदनी भी. वह कोई काम नहीं करता था और आराम से था. पहले वह दिन रात काम किया करता था और बेआराम था. अब वह एक लीडर था. तकरीरें किया करता था. (पृ. ३३६)

गंगौली में तो कभी कोई अँगरेज़ देखा नहीं गया (पृ. ३०२) वहाँ जब राष्ट्रवादी आन्दोलन की लहर आई तो लोग `आज़ादी’ के ख़याल से नहीं अपने अपने, और बहुत वाजिब कारणों से उससे जुड़े. ‘ भारत छोडो आन्दोलन’ के आसपास भीड़ थाने को घेर लेती है, “इस मज़मे में ऐसे लोग कम थे जिन्हें ‘हिन्दुस्तान छोड़’ दो के नारे की ख़बर रही हो. उनमें ऐसे लोग भी नहीं थे जिन्हें आज़ादी का महफूम पता हो. ये लोग वह थे , जिनसे ड्योढा लगान लिया गया था , जिनके खेतों से ज़बरदस्ती अनाज छीन लिया गया था, जबरदस्ती वारफंड लिया गया था. जिनके भाई भतीजे लड़ाई में काम आ गए थे या काम आनेवाले थे और जिनसे थाना कासिमाबाद कई पुश्तों से रिशवत ले रहा था.” (पृ. २०९)

अँगरेज़ तो गोदान में भी नहीं थे. गोदान ‘३६ में आया था लेकिन चूंकि रायसाहब कांग्रेस की मेम्बरी में जेल भी हो आए थे इसलिए ‘४७ के बाद भी उनकी रियासत बदले रूप में चलती रही होगी ऐसा हम मान सकतें हैं, फिर आधा गाँव के सारे ज़मीनदारों की ज़मींदारी इतना भक् से कैसे उड़ गयी? ( सिवा हम्माद मियाँ के जिन्होंने वक्त की नज्ब को पहचानकर परसराम का साथ दिया और नतीजतन अकेला उनका ताजिया उस बरस दुल्हन की तरह निकला. ) क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे शिया मुसलमान थे जिनके लिए न पाकिस्तान में जगह थी न यहाँ वे अपने रह गए थे? आधे अधूरे परिवारों के साथ ‘मरने के लिए’ रह गए इन खंडहरों की टीस क्या राही मासूम रज़ा की व्यक्तिगत पीड़ा की प्रतिध्वनि है जो राष्ट्रवादी आन्दोलन की सफालता के उत्सव में मगन लोगों को ध्यान दिलाना चाहते थे कि इस आज़ादी को पाने में हमने क्या खो दिया? क्या शानी का हिन्दी में मुसलमान लेखकों के ना होने का सवाल राही मासूम रज़ा से भी जाकर जुड़ता है?

….

मेरे विचार से जुड़ जाता है – यदि हम यह ध्यान दें कि इसमें आज़ादी के साथ बँटवारा है. नहीं, इसमें आज़ादी (और बँटवारे) का तारीखवार वर्णन कहीं नहीं है लेकिन हम उसे पहचान सकते हैं. यह उस जगह है जहाँ उपन्यास में अकेला ऐतिहासिक चरित्र दस्तक देता है – बाबू बालमुकुन्द वर्मा. वे बयालीस के शहीदों की स्मृति में बने स्मारक का उदघाटन करने आए हैं.  उनकी जोशीली तकरीर चल रही है, “अमर है वह गाँव और धन्य हैं वे मातापिता जिन्होंने मातृभूमि पर हरिपाल और गोवर्धन जैसे सपूतों की आहूति दी ! धन्य है कासिमाबाद की यह पवित्र भूमि जिसके माथे पर गोवर्धन और हरिपाल के रक्त का तिलक लगा हुआ है. “फुन्नन मियाँ इसे झेल नहीं पाते और बीच तकरीर में खड़े हो जाते हैं. उनकी वह गूँजती आवाज़ इस उपन्यास से बाहर निकलकर आती है, “ए साहब! हिआँ एक ठो हमरहू बेटा मारा गया रहा. आइसा जना रहा कि कोई आप को ओका नाम ना बताइस. ओका नाम मुन्ताज रहा! “(पृ. ३५९)

वाचक के अनुसार शेरवानी पहने फुन्नन मियाँ अजीब मसखरे लगा रहे थे. यदि आपने उपन्यास शुरू से पढ़ा हो और आप भी मेरी तरह फुन्नन मियाँ के गुरूर और ठसक से प्रभावित हुए हैं – करामत खां की बीवी को भगाकर अपनी बीवी बनाकर फिर उसी करामत खां के यहाँ सुबह शाम चाय पीने वाले, बड़े बेटे इम्तियाज़ के जंग में काम आने की बात सुनकर कहने वाले, “आपऊ को बात डिप्टी साहब. फुन्नन मियाँ का लड़का बहादुरी से लड़ते लड़ते हुए काम आ गया तो इसमें कौन ताज़्जुब की बात है. ऊ कौनो हकीम कबीर अली का लड़का है.” ठाकुर कुँवरपाल सिंह को चुनौती देकर अकेले उनसे दो-दो हाथ करनेवाले और फिर उनकी मौत के बाद उनके परिवार से ज़िंदगी भर दोस्ती निभाने वाले फुन्नन मियाँ पर आप भी फ़िदा हुए हैं तो यह अकेली आवाज रुला देती है. हमारे किंवदंती सरीखे नायक का इस ऐतिहासिक पुरूष की सूची को पूरी करना मानो दंतकथाओं के इतिहास में विलीनीकरण की कड़ी का रूपक है. यह एकरेखीय समरूपीकृत इतिहास की अन्तिम विजय है , इसके बाद तो बँटवारा ही नियति रह जाती है… इसलिए आज़ादी की इस वेला में राही मासूम रज़ा उपन्यास में बँटवारा कर देते हैं. वे अपनी भूमिका के साथ कथा में उतर आते हैं. संभवतः रूप ( form )के साथ वैचारिक बयान देने का यह हिन्दी कथा साहित्य का अपनी तरह का अकेला प्रयोग है.

आधा गाँव में आज़ादी चाहे ना हो, बटँवारा जरूर है.

(लेख में प्रयुक्त सभी उद्धरण आधा गाँव के अक्षर प्रकाशन, नई दिल्ली से १९६५ में प्रकाशित प्रथम संस्करण से लिए गए हैं जिसे उपलब्ध कराने के लिए मैं डॉ. सत्यनारायण का आभारी हूँ.)

One comment
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  1. aadha gaon ki bhashik sanrachana hi ooski shakti ka ananya srot hai.oka naam muntaj raha………. jaisa bhashik prayog funnan miyan ke charitra ko man aur mashtisk dono me utar deta hai.

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