आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

सोनमछरी मेँ सखामण्डल: वागीश शुक्ल

1.3 हस्तक्षेप

1.3.1

कोदई श्रीवत्स कनेक्टिंग फ़्लाइट मेँ चढ़े और सीधे अपनी सीट पर जा कर आँखेँ मूँद लीँ. झपकी आ गई और वे सपने मेँ अपना बचपन दोबारा जीने लगे.

इस अर्ध स्वप्निल स्थिति मेँ जो दृश्य उनके सामने आए उनमेँ उनके पिता का विशेष स्थान न था. शुरुआत मेँ उन्होनें देखा कि वे ग्यारह बरस के हैँ और अपनी सुनयना भौजी के पास बैठे हैँ जो उनकी पटीदारी के भाई हरिदत्त पंडित की पत्नी थी और कोदई से आठ वर्ष बड़ी थी. उनका गौना आए एक साल हो चुका था और देवर भौजी की छेड़छाड़ अब मौखिक से कुछ आगे बढ़ने की स्थिति मेँ पहुँच रही थी.

कोदई ने देखा कि सुनयना भौजी ने उनके गालोँ पर आई रेख पर अपना हाथ फिराते-फिराते उनके शरीर के कुछ और हिस्सों पर भी अपना हाथ बढ़ा दिया और उनमेँ आए कुछ परिवर्तनों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए थोडी देर बाद बोलीँ, “बाबू तुम तो पूरे मर्द लगते हो.”फिर शास्त्रीय पद्धति से यह कार्यक्रम उत्तरोत्तर आगे बढ़ा और पँतालीस मिनट के बाद तृप्त स्वर मेँ सुनयना भौजी नें उन्हेँ प्रमाणपत्र दिया, “बाबू तुम तो पूरे मर्द लगते ही नहीं हो, पूरे मर्द हो.”

अगले तीस दिनों मेँ कोदई की दिनचर्या यह रही की स्कूल जाने के समय निकलते और हरिदत्त पंडित के मकान का पिछला दर्वाज़ा खट खटाते जो गाव से बाहर कुछ दूर पर था और स्कूल जाने के रास्ते मेँ पड़ता था. दर्वाज़ा खुल जाता और वे मकान मेँ दाखिल हो जाते. हरिदत्त पंडित रजपुरवा मेँ एक जुए के अड्डे पर नौकरी करते थे और घर से सुबह निकलते तो रात को लौटते. गाँव के लोग जानते थे कि उन्हेँ अपने घर किसी का आनाजाना पसंद नहीं इसीलिए उनकी अनुपस्थिति मेँ कोई उधर जाता भी न था. कोदई के लिए यह शुभ संयोग ही कहा जाएगा की उनके इस नियमित कार्यक्रम पर किसी की निगाह नही पड़ी. इन तीस दिनों मेँ कुल एक सौ इक्यावन बार सुनयना भौजी ने उन्हेँ आह्लादपूरित स्वर मेँ पूर्व-कथित प्रमाणपत्र दिया. कोदई इसका ख़याल रखते थे कि स्कूल से लौटने के समय वे घर लौटते हुए दिखायी दें. एक दिन वे निश्चित समय पर लौट रहे थे कि घर के बाहर लगे ईख के खेत के इस पार से ही उन्हेँ अपने अध्यापक मुंशी सीतल पर्शाद की आवाज़ सुनाई दी. कोदई ने सुना कि मुंशी जी उनके पिता से पूछ रहे है,”का हो पंडित जी, बेटौना बहुत बेराम है का? महिना भर से स्कूल नाही पहुँचा?

कोदई ने निर्णय लेने मेँ एक क्षण की भी देरी न लगायी. उल्टे पाँव लौटे और रेलवे स्टेशन पहुंचे. टिकेट लेने की कोई जरूरत उन्होंने नहीं महसूस की और रेलवे प्रशासन ने टिकेट मांगने की कोई जरूरत नहीं महसूस की फलतः वे निर्विघ्न इलाहबाद पहुँच गए. तीन महीनो क लिए दी जाने वाली स्कूलफ़ीस उनकी जेब मेँ पिछले महीने भर से पड़ी थी. उस पूँजी से उन्होंने सिवदीन मास्टर का घर ढूँढना शुरू किया और विना एक जून उपवास किए चौबीस घंटे मेँ ढूढ़ ही निकला.

यह उनके लिए सुखद विस्मय का विषय रहा कि उनकी बड़ी बहन सिधिया ने यह सम्पूर्ण वृतान्त जानने के बाद केवल इतना पूछा कि इस बात की भनक तो किसी को गाँव मेँ नहीं लगी और यह की सुनयना भौजी अच्छी तरह तो है. दोनों मुद्दों पर उसे आश्वस्त करके कोदई अपने शैक्षणिक विकास की और उन्मुख हुए.

कुछ वर्ष बाद जब प्रिन्सटन विश्वविद्यालय मेँ उनकी सुपरवाइज़र एलिज़ाबेथ मारिसन – हचिंसन थर्ड “काल मी लिज़ “ने उन्हेँ “द कंप्लीट ऎंड अन- एब्रिज्ड कामसूत्रा विद फुल इलस्ट्रेशंस”की एक प्रति भेंट की तो कोदई ने पाया की उसमेँ कुछ नया प्रायोगिक उनके लिए शेष न था और सुनयना भौजी से मिला प्रशिक्षण कंप्लीट ऎंड अन- एब्रिज्ड था. लिज़ कृत औपरिष्टक की स्मृति की खुमारी मेँ डूबते -उतराते कोदई को अचानक लगा कि उनके दोनों हाथों को पकड़ कर कहीं से हटाया जा रहा है. झपकी से चौँक कर उन्होँने पाया कि एक हाथ को उनके दाहिने खड़ी एयर होस्टेस अपनी औपचारिक मुस्कान को ओढे रहने की कोशिश करती हुई शालीनतापूर्वक अपनी देह से अलग कर रही है और दूसरे हाथ को किंचित् अमर्ष के साथ अपनी देह से अलग करती हुई उनकी उनकी बायीं बगल की सीट पर बैठी एक लड़की से कह रही है, “प्रोफ़ेसर के.एस.पञ्चप्रवर, आपसे यह आशा न थी.”

दोनों महिलाओं पर “सारी-सारी “की लगातार बारिश करने के बाद जब कोदई दोनोँ से “इट्स आलराइट ” कहलवा कर आश्वस्त हुए तो उन्होँने लक्ष्य किया कि पड़ोस वाली लड़की भी स्वदेश की ही है और इस समय उसके चेहरे पर उदासी छाई हुई है.

लडकी ने चुपचाप वायुयान मेँ उपलब्ध अखबार उनके सामने बढ़ा दिए. कोदई ने पाया कि उनकी तस्वीर और उनका भाषण सभी मेँ छपे हुए हैँ.

कुछ देर बाद कुछ रस्मी बातचीत शुरू हुई. कोदई ने पूछा “आपको मेरा नाम कैसे मालूम हुआ और आपने ये कैसे जान लिया कि मैँ हिन्दी भाषी हूँ?”

फिर लड़की ने कहा “यों मैँ ने आपके रिसर्च-पेपर्स पढ़ रखें हैँ. अखबार से ये पता लगा कि आप मेरे गाँव के पास ही के रहने वाले हैँ. इसीलिए मैँ हिन्दी मेँ आपसे बोली.”

कोदई ने सहज जिज्ञासा की और पाया की लड़की का नाम मङ्गला श्रीमुख है और वह शिवगढ़ी के पंडित दुर्गाशंकर श्रीमुख की पौत्री है. पंडित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख. पंडित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख का नाम सुनकर कोदई थोड़ा अदब मेँ आ गए. उस जवार मेँ कौन ऐसा था जो श्रीमुख परिवार का नाम नहीं जानता था और वे तो ख़ैर शिवगढ़ी मेँ ही छठी कक्षा तक पढ़े भी थे.

कुछ देर बाद मङ्गला श्रीमुख ने कहा “मेरे ख़याल मेँ आपका शोध तर्कसङ्गत तो है किँतु उससे वह लक्ष्य न प्राप्त होगा जो आप चाहते है.”कोदई चौँके. इस तरह की बात सुनने के वे आदि न थे. सशङ्क भाव से बोले “आप ऐसा क्योँ कहती है?”

इसके बाद बहस हिन्दी से हटकर अंग्रेज़ी मेँ होने लगी. क़रीब दो घंटे के धुँआधार तकनीकी वादविवाद के बाद, जिसमेँ कई बातेँ कोदई ने अपने लैपटाप मेँ की-इन की, अंततः कोदई यह स्वीकार करने पर विवश हुए की अपने शोध को आगे बढ़ने के लिए उन्हेँ मङ्गला श्रीमुख की सहायता लेनी होगी जो मसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट आफ़ टेक्नोलाजी मेँ एक ग्रेजुएट स्टुडेंट थी. इस विषय पर आगे बातचीत चलती रहेगी, इस प्रतिज्ञा के साथ ये बहस खत्म हुई. इस समय तक “काल मी के काज़ दैट्स हाउ आई वांट इट “और “काल मी मैन काज़ एवरीबाडी डज़” हो चुका था.

मैन उर्फ़ मङ्गला श्रीमुख ने कहा, “दिल्ली नजदीक आ रहा है. मेरे लिए मेरा हेलीकाप्टर आया होगा “

मैँने अख़बार मेँ जो पढ़ा है उससे लगता है कि आप को भी अपने पिता कि मृत्यु के नाते अपने गाँव कि ही और जाना होगा. आप चाहेँ तो मेरे साथ लखनऊ तक मेरे हेलीकाप्टर मैं चल सकते हैं. लखनऊ मेँ मुझे कुछ देर रुकना होगा क्योँकि मुझे अपने बाबा का शव पुलिस से लेना है.

कोदई ने दबे स्वर मैं कहा, “तो क्या पंडित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख की मृत्यु हो गई है?”

मैन ने कहा, “हाँ उनकी हत्या हुई है.”

अब कोदई बोले, “देखिए ये बात मैँने किसी को बताई नहीँ किन्तु आप से कहता हूँ, मुझे एक फोन आया था कि मेरे पिता की भी हत्या की गई है यद्यपि इसे ट्रक दुर्घटना से हुई मौत माना गया है. “आश्चर्य यह है कि ये फोन मेरे उस मोबाईल पर आया जिसकी जानकारी इनेगिने लोगोँ को ही है और जिस व्यक्ति ने फोन किया उसका कहना था कि यह हत्या उसी ने करवायी है.

चौंकने की बारी मङ्गला की थी. उसने कहा “यह बात मैंने भी किसी को नही बताई नहीँ आप से कहती हूँ; मुझे भी एक फोन आया था कि मेरे पितामह की हत्या की गई है और जिस व्यक्ति ने फोन किया उसका कहना था कि यह हत्या उसी ने करवायी है. मैँ नैनोटैक्नॉलजी की जिस लैब मेँ काम करती हूँ उसमें मेरा प्रोजेक्ट कुछ क्लासिफाइड किस्म का है और मुझे भी एक मोबाइल दिया गया है जिसकी जानकारी इनेगिने लोगों को ही है. आश्चर्य यह है की ये फोन उसी पर आया. दूतावास वालोँ से सूचना इसके बाद मिली थी.”

1.3.2

दिल्ली आ गया. मङ्गला कहने के अनुसार उनके हेलीकाप्टर से दोनों लखनऊ पहुँच गए.वहां मङ्गला श्रीमुख को उनके पितामह का शव सौंप दिया गया और पहले से तैयार तीन बड़ी कारों में मङ्गला श्रीमुख का काफिला चला.किंतु जब मङ्गला की कार के ड्राईवर ने कार का पिछला दरवाज़ा खोला और मङ्गला उसमें सवार होने लगी तभी कोदई, जो उसी कार में सवार होने के लिए मङ्गला के ठीक पीछे खड़े थे, ने एक बाईक पर सवार दो नौजवानोँ को अपनी और बढ़ते देखा जीनें से एक के हाथ में एक नए किस्म की बन्दूक थी.

कोदई ने हस्तक्षेप किया. उन्होँने एक हाथ से मङ्गला को ज़मीन पर ढकेल दिया, दूसरे हाथ से ड्राईवर को धक्का मार कर गिराया.उसके ऊपर ख़ुद भी गिर पड़े. इन कार्यों से वे अभी पूरी तरह फारिग न हुए थे कि गोलियों की एक बौछार आई और बाइक तेजी से आगे बढ़ गई. इस घटना मेँ कोदई के धक्के से मुँह के बल गिरी मैन के गाल पर खून छल छला आया, ड्राईवर के सर मेँ घुमड़ निकल आया और कोदई को एक गोली छीलती हुयी निकल गयी. एक राहगीर घटनास्थल पर ही मारा गया. अब पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम मैं कुछ परिवर्तन आवश्यक हो गया.

चूँकि पंडित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख का अन्तिम संस्कार उनकी इच्छानुसार उनके गाँव के पास की नदी मनोरमा के किनारे ही करना आवश्यक था, यह निश्चय हुआ कि उनके अभिन्न मित्र मीर आशिक़ हुसैन ‘आशिक़‘ और उनकी सारी जायदाद की देख रेख करने वाले मुंशी बशेशर ‘नवाब‘ पंडितजी का शव लेकर दो कारों से चलेँ और तथा पंडित जटाशङ्गकर पाण्डेय, जो श्रीमुख द्वारा स्थापित उस हाई स्कूल मेँ प्रधानाद्यापक थे जिसमें कभी कोदई पढ़ते थे, कोदई को अस्पताल मेँ भरती आदि करा कर परिस्थिति के अनुसार बाद मेँ आवेँ. परिस्थिति यह बनी कि जिस अस्पताल मैं कोदई को दिखाया गया उसके विशषज्ञों ने आश्वस्त किया कि न्यूयार्क तो क्या दिल्ली भी ले जाने कि जरूरत नहीं है, मरीज को बहुत मामूली चोट आई है, फिर भी एहतियातन उसे पाँच दिन इस सुपरस्पेशलिटी हास्पिटल मेँ रोक लिया जाएगा, और इस पाँच दिन का खर्च मात्र पाँच हज़ार यूरो के बराबर स्थानीय मुद्रा मैं होगा. कोदई ने बहुत मना किया लेकिन मंगला ने एक न मानी और अस्पताल के नाम जरूरी रकम अपने पास से जमा करवायी. पुलिस मेँ रिपोर्ट आदि दर्ज कराने के बाद मङ्गला ने पंडित जटाशङ्गकर पाण्डेय को कोदई की देखभाल के लिए वहीं छोड़ा और अपने हेलीकाप्टर से ही जाने का निश्चय करके भरे मन से “सी यू, गेट वेल सून “कहा.

चलते चलते कोदई ने कहा, “मैन, आई लव यू.”

मैन ने मुस्करा कर कहा,”इसका कुछ आभास तो तुम्हारे हस्तक्षेप से ही हो गया था.”

कोदई ने कहा “अरे नहीँ, बन्दूक लिए बढ़ते नौजवानोँ को देख मैँ इतना तो किसी के लिए भी करता. बट,रियली, मैन, आई लव यू.”मैन ने मुस्कराकर कहा “प्रोफेसर पञ्च्प्रवर, हस्तक्षेप से मेरा तात्पर्य आपके शौर्य प्रदर्शन से न था. हस्तक्षेप का अर्थ है हाथ बढ़ाना. आपने वायुयान मेँ अर्ध स्वप्निल अवस्था मेँ मेरे स्तनोँ पर जो हाथ पसारे थे, मैँ उसकी बात कर रही थी.”

कोदई का चेहरा शर्म से लाल हो गया. फ़िर भी हकलाते हुए उनके मुँह से जो वाक्य निकला वह यही था, “मैन, आई लव यू.” मैन ने कहा,”सो डू आई, के.”

1.4 ग़ज़नवी का हमला

1.4.1

उपरिलिखित घटना के छह घंटे बाद एक वार्तालाप हुआ जिसकी प्रासङ्गिकता के नाते उसे यहाँ उद्धृत किया जाता है.

इस वार्ता मेँ फोन के एक छोर पर रजपुरवा मेँ बैठे मालिक ग़ाज़ीउद्दीन ग़ज़नवी थे जो रजपुरवा के भूतपूर्व ज़मीँदार परिवार के एकमात्र उत्तराधिकारी थे. और दूसरे छोर पर मुंबई मेँ बैठे जलाल भाई थे कभी ग़ज़नवी साहब के आसामी रह चुके थे.

जलाल भाई ने कहा, ‘का हो गजनवी, कौने लँडबक के बन्दूखि थमवलऽ कि कुल गुर गोँइठा होइ गइल. कहल रहल नऽ कि खाली ड्रइवरवा के अ दुई चार चमचन के उडावे के बाय अउर मँगलिया अ कोदया के खरोँच तक नहीँ आवे के चाहीँ? खैर कोदया बचि जाई ए नाते हमर तुहार जानो बकसल गइल है लेकिन अब हम्मेँ जौन एक करोड़ मिले वाला रहल तौने मेँ से पंचानबे लाख कटि गइल अ तुहेँ जौन हम बीस लाख देतीँ ओमेँ से अब एके लाख पइब. हाँ ओ गुँडुल्लरी के पन्द्रह दिन के भीतर एनकाउंटर करवा दिहऽ नाहीँ ता इहो नाहीँ मिले इहो अ जानो जाई.”

ग़ाज़ीउद्दीन ग़ज़नवी कुछ क्षुब्ध स्वर मेँ बोले, “काहेँ हो जलाल भाई ए तरह से बतियाव थव? बम्बई मेँ केहू कै निशाना नाहीँ चूकऽला का.”जलाल भाई ने ठंडी आवाज़ मेँ कहा, “ए गजनवी, किसानन के खेत जरवले से अ घर गिरवले से केहू बड़का खेल मेँ शामिल नाहीँ होला. तूँ कहला कि लोटना क निशाना बड़ा बढियाँ है, हम तुहरे पर बिस्वास क के तुहेँ ई काम सौँपि देहलीँ अ नतीजा ई है कि घिघिया घिघिया के जान बंचावत बाटीँ. चूकऽला बंबइयो मेँ निसाना चूकऽला, लेकिन तब न सूटर बाचऽला न सुपारी लेवे वाला भाई. ई पहला मौका है कि हम साहेबजादा के कौनो काम मेँ चुकलीँ. जौन कहलीँ तौने क ख्याल करहि नाहीँ जो साहबजादा क आडर हो गइल त तुहेँ हमही के उड़वावे के परी.”

1.4.2

समुद्रपार के एक निकटवर्ती देश मेँ बैठे अकरम सलीम साहिबज़ादा का फोन घनघनाया. उधर से डान मारियो की आवाज़ थी, “तुम वही है जो तुम्हारा इनिशिअल्स तुमको बताता है. हम तुमको दस करोड़ का प्रोजेक्ट देता है और तुम एक इडियट को सुपारी देता है. तुम बस दो मिनट जियेगा.”

साहिबज़ादा थरथर काँपते हुए अपने जैकुज़ी बाथरूम की ओर चले क्योँकि उनकी रेशमी लुंगी ख़राब हो रही थी. किंतु मंजिल तक पहुँचने से पहिले उनकी खोपड़ी को चार गोलियाँ पार कर चुकी थीँ.

1.4.3

ग़ाज़ीउद्दीन ग़ज़नवी ने अपने विश्वस्त अनुचर लोटन जादो की ओर देखा. ख़ैर अभी पन्द्रह दिन का वक्त है, देखा जाएगा, यह सोच कर बोले,”लोटन, ई लखनऊ वाला काम खराब हो गइल. कुछ मन खुश करेके उपाय खोजऽ.”

लोटन जादो बोले, “मालिक, परसोँ दुर्गागंज के ओर गइल रहलीँ. उहाँ एक ऐसन पटाखा लउकल कि का बताइँ. अठारह बरस कै भरपूर गदराइलि बाय, लेकिन केहू छुअले नाहीँ है.”

ग़ज़नवी बोले, “का नाँव है ओकर?”

लोटन ने कहा, “रिधिया”.

1.5 सोनमछरी मेँ सखामँडल

1.5.1

“रिधिया को जुगल सरकार मेँ हाज़िर करो.”रसलसी सखी जी ने मनबसी सखी जी से कहा.

कोई दस वर्ष पहले दुर्गागंज मेँ एक वृद्ध संत आ बसे थे. ये सदा भावविभोर अवस्था मेँ “रामाभिरामो रमणीशरामो राशब्दरामो रसराजरामहः” गाते रहते थे. इस एक पङ्क्ति के अलावा उनके मुँह से किसी ने कोई वाकया नहीँ सुना. उन्हेँ किसी ने कुछ दे दिया तो खा लेते थे, नहीँ तो उपवास करते. गाँववालोँ ने एक कुटिया उनके लिए बना दी थी लेकिन कभी उन्हेँ उसमेँ रहते नहीँ देखा गया. गाँववालोँ ने उन्हेँ ‘रसपगे बाबा’ कहना शुरू कर दिया.

रसपगे बाबा के आने के दो वर्ष बाद एक नौजवान दुर्गागंज मेँ आया और उसने घोषित किया कि रसपगे बाबा का असली नाम ‘रसपगे सखी जी’ है, आज से बारह वर्ष पूर्व उसे अयोध्या मेँ दीक्षा देने के बाद वे अंतर्धान हो गए थे; तभी से उनकी खोज मेँ हिमालय को कन्दराओँ मेँ गया, सभी तीर्थोँ मेँ भटका, और अंततः इस छोटे से गाँव मेँ उन्हेँ पा सका. इस बात पर अविश्वास करने का कोई कारण न था, क्योँकि रसपगे बाबा ने “रामाभिरामो रमणीशरामो राशब्दरामो रसराजरामहः”के अतिरिक्त कोई वाक्य मुँह से निकाला नहीँ. इस नौजवान ने अपना नाम “रसलसी सखी जी” बताया.

कुटिया मेँ रसलसी सखी जी ने रहना शुरू किया. धीरे धीरे विशाल से विशालतर भंडारे और संतसमागम आयोजित होने लगे. ऐसे ही एक भंडारे का प्रसाद पा कर रसपगे बाबा का स्वर्गवास हो गया तथा उनके सहज उत्तराधिकारी हो कर रसलसी सखी जी प्रतिष्ठित हुए.

कुछ समय बाद यह जगह छोटी पड़ने लगी. अचानक देखा गया कि रजपुरवा के भूतपूर्व ज़मीँदार ग़ाज़ीउद्दीन ग़ज़नवी ने उदारतापूर्वक दस एकड़ ज़मीन रसलसी सखी जी के आश्रम के लिए दी है. उसी समय ग़ज़नवी ने दस एकड़ ज़मीन पर एक मस्जिद भी बनवाई. तब से अब तक प्रबुद्धसंघी बुद्धिजीवियोँ द्वारा साम्प्रदायिक सद्भाव के उदहारण के रूप मेँ ग़ज़नवी साहब को प्रस्तुत किया जाता रहा है.

किंतु मीर आशिक हुसैन ‘आशिक’ ने उस समय केवल इतना कहा: “उस्ताद बहुत पहले कह गया है

गह अलम+ए+कुफ्र+ओ+दीं
गह+ग़म+ए+शक्क+ओ+यकीँ
अल्+हज़र अज़ फित्न ये
दैर+ओ+हरम दर बग़ल” [1]

1.5.2

रजपुरवा ग्रामसभा क्षेत्र मेँ सौ एकड़ ज़मीन का एक टुकड़ा था जो ग्रामसभा का माना जाता था. इसपर गोचर था किंतु इस बीच सरकारी आदेश के अनुसार इसे भूमिहीनोँ को आबंटित किया जाना था. धर्म के पास भूमि का अभाव सर्वविदित है. नहीँ तो इस विशाल पृथिवी पर धर्मभूमि की इतनी व्याकुल खोज क्योँ होती.

मन्दिर और मस्जिद के लिए आबंटन के बाद जिन भूमिहीनोँ को ज़मीन मिली उनमेँ लोटन जादो, उमर इकबाल, रामदीन पाण्डेय, मनबढ़ सिंह, सविता महरा और चितकाबर मुखर्जी के अलावा ग़ज़नवी साहब के ड्राईवर तिरपट और उनके खानसामा शाहरुख़ का नाम शामिल था. मस्जिद के इमाम अल्लामा उमर इकबाल ने एक मदरसा लड़कियों के लिए और एक मदरसा लड़कों के लिए खोला. इनमें परीक्षाफल शतप्रतिशत होता था. देश और विदेश से इनमेँ विद्यार्थी और धन आने लगे. लाउडस्पीकर पर जनसाधारण के लिए तबलीग़ भी चलती रहती.

रसलसी सखी जी ने एक भजनमण्डली खोली. देश और विदेश से इसमेँ भजनीक और धन आने लगे. लाउडस्पीकर पर “सरकाई लो खटिया जादा लगे, जाड़े मेँ रामा प्यारा लगे.”बजता रहता. क्रमशः आश्रम और मस्जिद के घेरे मेँ आने वाली सारी इमारतोँ और घेराबंदी को सारी दीवालोँ पर सुनहरे रंग को पालिश हुई. आश्रम का नाम ग़ज़नवी हाई स्कूल मेँ हिन्दी के अध्यापक विकल बिहारी जी ने बच्चन जी को एक कविता से प्रभावित हो कर ‘सोनमछरी मन्दिर’ रखा जो जनता के बीच अपने संक्षिप्त रूप ‘सोनमछरी’ से प्रसिद्द हुआ. मस्जिद ‘तिलाई [2] मस्जिद’ के नाम से जानी गयी.

सोनमछरी भजनमण्डल के संयोजक मनबसी सखी जी थे. उनका मूलतः नाम जान कार्टर निक्सन था और वे पहले टेक्सास मेँ एक विश्वविद्यालय मेँ हिन्दी तथा दूसरे विश्वविद्यालय मेँ हिन्दू धर्म पढ़ाया करते थे. ये दोनोँ विषय पढाते-पढाते उनकी रुचि हिंदुस्तान मेँ जागृत हो गयी और वे मियामी के एक विश्वविद्यालय मेँ इंडिया स्टडीज़ पढाने लगे. अमेरिका मेँ ‘हिन्दी,हिंदू, हिंदुस्तान’ नाम से एक संगठन उन्होँने खोला था जो “ट्रिपल एच” के नाम से जाना जाता था और “ट्रिपल के” नामक संगठन को तुलना मेँ अधिक प्रसिद्द था. फिलहाल वे लम्बी छुट्टी पर अपने शोध को आगे बढ़ाने के निमित्त रसलसी सखी जी के आश्रम मेँ पिछले तीन वर्षोँ से आए हुए थे.

मनबसी सखी जी ने आते ही आश्रम मेँ कुछ सुधार आवश्यक समझे. अब तक सोनमछरी लीला मेँ लला जी के साथ केवल लली जी और लली जी को सखियाँ होती थीँ. ये सखियाँ नियमानुसार स्त्रीवेषधारी पुरूष होते थे और आश्रम मेँ स्त्रियों को शिक्षा न दी जाती थी. किंतु मनबसी सखी जी ने इसे स्त्रियों के अधिकार का हनन माना. उन्होँने लैङ्गिक समता का सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए बताया कि लीला अधूरी है जब तक स्त्रियोँ को इसमे भाग लेने की अनुमति नहीँ दी जाती. आकंठ आसवपूरित रसलसी सखी जी ने इसका अनुमोदन किया. यह निर्णय हुआ कि लीला मेँ सखामण्डल की सृष्टि की जाय और स्त्रियोँ को पुरुषवेष मेँ इस सखामण्डल मेँ शामिल किया जाय.

इस पर सोनमछरी के अकाउंटैंट मुँहलगा सखी जी और स्टोर इंचार्ज रतजगी सखी जी ने आपत्ति प्रकट की. उनका कहना था कि स्त्रीधर्म के निर्वाह के लिए सभी सखियोँ को प्रतिमाह सैनिटरी नैपकिन के छह पैकेट ईशू करने का नियम है. अब सखामण्डल के सदस्यों को तो ये दिए नहीँ जा सकते किँतु कुछ प्राकृतिक अनिवार्यताएँ हो सकती हैं जिनका समाधान आश्रम को ढूँढना होगा.

यह समस्या साधारण न थी किँतु मनबसी सखी जी ने अपनी असाधारण मेधा के बल पर इसका समाधान ढूँढ ही निकाला. इन्होँने कहा कि यह तो बहुत आसान है, सखाओँ को साधुओँ की भाँति अधोवस्त्र के रूप मेँ बिस्टी पहननी होगी और वे बिस्टियाँ डिज़ाइनर बिस्टियाँ होँगी जिनमेँ एब्जार्बेंट लाइनिंग होगी.

अब कोई आपत्ति शेष न थी और सखामण्डल की सृष्टि हो गयी. इसकी संयोजक सखा मनभावन जी बनायी गयीँ.

अब लीला का आयोजन “सम्पूर्ण लीला”के नाम से होने लगा. अब तक कई सम्पूर्ण लीलाएँ सफलतापूर्वक आयोजित हो चुकी थीँ.

किँतु इस बार कुछ गड़बड़ हो गयी. हुआ यह कि लीला मेँ बरजत-प्यारी सखी जी की जोड़ीदार सखा घूँघट-टारे जी यद्यपि बर्लिन से सही समय पर चलीँ, दिल्ली पहुँचते ही हवाई अड्डे पर हेरोइन की भारी मात्रा के साथ गिरिफ़्तार हो गयीँ. लीला मेँ केवल तीन दिन बाकी थे और इसकी कोई आशा न थी कि सखा घूँघट-टारे जी इस बार उसमेँ भाग ले पायेंगीँ.

ऐसे मेँ सखा मनभावन जी ने रिधिया का नाम सखा घूँघट-टारे जी की भूमिका के उपायुक्त सम्भावना के रूप मेँ सुझाया. इसे मनबसी सखी जी ने स्वीकार किया और तब आकण्ठ आसवपूरित रसलसी सखी जी ने इसका अनुमोदन करते हुए वह आदेश दिया जिसका उल्लेख ऊपर किया गया: “रिधिया को जुगल सरकार मेँ हाज़िर करो.”

Notes


[1] मिर्ज़ा बेदिल का शेर है, “कभी इसकी चिंता कि अधर्म क्या है और धर्म क्या, कभी इसका शोक कि संदेह क्या है और विश्वास क्या. इस उपद्रव से बचो जिसकी एक बग़ल मेँ मन्दिर है और दूसरी मेँ मस्जिद.

[2] तिलाई= सुनहरी

3 comments
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  1. वागीश जी और संपादक गण का शुक्रिया

    कि मैं उनका पुराना फ़ैन हूँ, और बहुत ख़ुश हूँ कि उनके पहले उपन्यास का अंश पढ़ने को मिला. सेक्स और वायलेंस के साथ अच्छा उठान है,
    नाम बड़े मनोहारी हैँ, ग्लोकल फैलाव है, मज़ा आएगा. बेदिल का शेर भी अच्छा लगा, और हस्तक्षेप का निहायत सामान्य पर आम तौर पर हमारी दृष्टि से ओझल भाष्य पढ़कर प्रसन्नता हुई. अउर भोजपुरी के बोली भी नीक लागल!

    रविकान्त

  2. बहुत दिनों बाद पढ़ने का मज़ा आया।

  3. Vagish Jee accept my thanks that you have written such a funtastic chapter. Full of fun and masti in a really smooth flow.

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