मेटामोर्फोसिस बतर्ज स्योनाण: मालचन्द तिवाड़ी
लोक
हमारा लोक अब लोक में नहीं, हमारे महादेश के तथाकथित लोकतान्त्रिक और भीषण-भाव को प्राप्त हो चुके एक अपूर्व राजनीतिकृत ‘परलोक’ में रहता है। गोस्वामी तुलसीदास ने ‘जे गुरु-पद-पंकज अनुरागी। ते लोकहि-वेदहि बड़भागी’ में जिस ‘लोक’ को सन्दर्भित किया है, वह लोक तो शायद यह नहीं ही है जो किसी के बड़भागी होने का सर्टिफिकेट सिर्फ इस बात पर जारी कर दे कि वह अपने गुरू के चरण-कमलों के प्रति अनुराग रखता है। इस अर्थ में हमारा लोक सचमुच ‘परलोकवासी’ हो चुका है। अस्तु, मैं महान लोकनायक वीर तेजाजी के निमित्त से आपके सामने एक कथा प्रस्तुत करूंगा।
तेजाजी मुख्यत: राजस्थान के लेकिन उतने ही उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और कुछ हद तक पंजाब के भी लोक-नायक हैं। अवश्य ही इन प्रदेशों की जनभाषाओं के लोक साहित्य में उनके आख्यान की अभिव्यक्ति के अनेक रूप भी मौजूद हैं। राजस्थानी का ‘तेजा’ लोक-गीत तो इनमें शामिल है ही। वे इन प्रदेशों के सभी समुदायों के आराध्य हैं। लोग तेजाजी के मन्दिरों में जाकर पूजा-अर्चना करते हैं और दूसरी मन्नतों के साथ-साथ सर्प-दंश से होने वाली मृत्यु के प्रति अभय भी प्राप्त करते हैं। स्वयं तेजाजी की मृत्यु, जैसा कि उनके आख्यान से विदित होता है, सर्प-दंश से ही हुई थी। वचनबद्धता का पालन करने के लिए, मैं इस पर जोर देना चाहूँगा, बचनबद्धता का पालन करने के लिए तेजाजी ने स्वयं को एक सर्प के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया था। वे युद्ध भूमि से आए थे और उनके शरीर का कोई भी हिस्सा हथियार की मार से अक्षत् नहीं था। घावों से भरे शरीर पर अपना दंश रखन को सर्प को ठौर नजर नहीं आई, तो उसने काटने से इन्कार कर दिया। वचन-भंग होता देख घायल तेजाजी ने अपना मुँह खोल कर जीभ सर्प के सामने फैला दी थी और सर्प ने उसी पर अपना दंश रख कर उनके प्राण हर लिए थे।
लोक-नायक की जीवन-यात्रा एक नितान्त साधारण मनुष्य के रूप में शुरू होती है और वह किसी-न-किसी तरह के असाधारण घटनाक्रम में पड़ कर एक असाधारण मनुष्य में रूपान्तरित हो जाता है। उसकी कथा को कहने और सुनने वाला लोक ही उसे एक ऐसे मिथकीय अनुपात में ढाल देता है कि इतिहास के तथ्यप्रेमी चिमटे से तो वह पकड़ा ही नहीं जा सकता। मसलन तेजाजी जिस सर्प से अपनी जीभ पर दंश झेल कर अपनी वचनबद्धता निभाते हुए नायकत्व हासिल करते हैं, इतिहास में उसका तथ्यात्मक खुलासा कुछ यह कह कर दिया गया हैः While Tejuje was returning from Paner with his wife, he was attacked jointly by Meenas, who were defeated earlier and Nagvanshi cheiftans.
लोकाख्यान का नाग इतिहास की चपेट में आकर नागवंशी मुखिया की गति को प्राप्त हो जाता है। बहरहाल, लोक-नायक के एक और उल्लेखनीय लक्षण की चर्चा के बाद में अपनी कहानी पर आऊँगा। लोक-नायकों का एक वर्ग ऐसा भी होता है, जिसमें वे जन-साधारण के परित्राता अथवा परित्राणकर्त्ता बन कर अपनी छवि का अर्जन करते हैं। वे जन-साधारण के पक्ष में, स्थापित शक्ति-तन्त्र के दमन और दुराचार से लोहा लेते हैं। इस वर्ग के लोक-नायक अक्सर, हमेशा नहीं, कुछ हद तक संस्थापित कानून की हदों से बाहर निकले हुए होते हैं। डाकुओं को प्राप्त लोक-नायकत्व इसी वर्ग में शुमार होता है।
मुझे लगता है, अपनी कहानी शुरू करने से पहले, तेजाजी के बलिदान की मूल कथा संक्षेप में कहने का मौका आ गया है.
कथा
तेजाजी का जन्म राजस्थान के नागौर जिले में खरनाल गाँव में हुआ था। इतिहास इसे कुछ यों बताता है : एक ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में तेजाजी का जन्म भाद्रपद की शुक्ल पक्षीय दशमी तदनुसार २९ जनवरी, १०७४ (?) को धुलिया गोत्र के जाट परिवार में हुआ था। उनके पिता चौधरी नाहरजी (थिरराज) राजस्थान के नागौर जिले के खरनाल गाँव के मुखिया थे। उनकी माता का नाम सुगना था।’ चौधरी नाहरजी (थिरराज) राजस्थान के नागौर जिले के खरनाल गाँव के मुखिया थे। उनकी माता का नाम सुगना था। यहाँ यह भी बता दूँ कि तेजाजी के जन्म की अंग्रेजी तिथि २९ जनवरी, १०७४ के अन्त में इतिहासकार महोदय ने स्वयं अपनी तरफ से कोष्ठकों के घेरे में एक प्रश्नवाचक चिह्न भी अंकित किया है।
बहरहाल, तेजाजी के बारे में जो लोक-गीत मैं बचपन में अपने एक मौसेरे भाई शिवनारायण पाण्डिया के आरोह-अवरोह युक्त सुरीले कण्ठ से सुनता रहा, उसमें वर्णित उनकी कथा इस प्रकार हैः
ज्येष्ठ मास लग चुका है। ज्येष्ठ मास में ही ऋतु की प्रथम वर्षा हो चुकी है। ज्येष्ठ मास की वर्षा अत्यन्त शुभ है। गाँव के मुखिया को ‘हालोतिया’ करके बुवाई की शुरुआत करनी है। मुखिया मौजूद नहीं है। उनका बड़ा पुत्र भी गाँव में नहीं है।
मुखिया की पत्नी अपने छोटे पुत्र को, जिसका नाम तेजा है, खेतों में जाकर ‘हालोतिये’ का शगुन करने के लिए कहती है। तेजा माँ की आज्ञानुसार खेतों में पहुँच कर हल चलाने लगा है। दिन चढ़ आया है। तेजा को जोरों की भूख लग आई है। उसकी भाभी उसके लिए ‘छाका’ यानी भोजन लेकर आएगी। मगर कब? कितनी देर लगाएगी? सचमुच, भाभी बड़ी देर लगाने के बाद ‘छाका’ लेकर पहुँची है। तेजा का गुस्सा सातवें आसमान पर है। वह भाभी को खरी-खोटी सुनाने लगा है। फिर भाभी भी भाभी है। पलट कर जवाब देती है, तुम्हारी जोरू जो पीहर में बैठी मटरके कर रही है…. कुछ शर्म-लाज है, तो लिवा क्यों नहीं लाते?
तेजा को भाभी की बात तीर-सी लगती है। वह तत्क्षण अपनी पत्नी पेमल को लिवाने अपनी श्वसुराल जाने को तैयार होता है। मगर भाभी फिर ताना मारती है कि पहली बार श्वसुराल को आने वाली अपनी दुल्हन पेमल का ‘बधावा’ यानी स्वागत करने वाली अपनी बहन राजल को तो पहले पीहर लेकर आओ। तेजाजी का ब्याह बचपन में ही पुष्कर में पनेर गाँव के मुखिया रायमल की बेटी पेमल के साथ हो चुका था। विवाह के कुछ समय बाद दोनों परिवारों में खून-खराबा हुआ था। तेजाजी को पता ही नहीं था कि बचपन में उनका विवाह हो चुका था। भाभी की तानाकशी से हकीकत सामने आई है।
जब तेजाजी अपनी बहन राजल को लिवाने उसकी श्वसुराल के गाँव ताबीजी के रास्ते में थे, तो एक मीणा सरदार ने उन पर हमला किया। जोरदार लड़ाई हुई। तेजाजी जीत गए। ताबीजी पहुँचे और अपने बहनोई जोगाजी सियाग की अनुमति से राजल को खरनाल ले आए। अगली सुबह वे अपनी लीलण नामक घोड़ी पर सवार हुए और अपनी पत्नी पेमल को लिवाने निकल पड़े।
बरसात का मौसम। कितने ही उफान खाते नदी-नाले पार कर वे अपनी श्वसुराल पनेर आ पहुँचे। शाम का वक्त था। उनकी सास गाएँ दूह रही थी। तेजाजी का घोड़ा उनको लेकर धड़धड़ाते हुए पिरोल में आ घुसा। सास ने उन्हें पहचाना नहीं। वह अपनी गायों के डर जाने से उन पर इतनी क्रोधित हुई कि सीधा शाप ही दे डाला, ‘जा, तुझे काला साँप खाए!’ तेजाजी उसके शाप से इतने क्षुब्ध हुए कि बिना पेमल को साथ लिए ही लौट पड़े।
पेमल की सहेली थी लाछां गूजरी। उसने पेमल को तेजाजी से मिलवाने का यत्न किया। वह ऊँटनी पर सवार हुई और रास्ते में मीणा सरदारों से लड़ती-जूझती तेजाजी तक जा पहुँची। उन्हें पेमल का सन्देश दिया। अगर उसे छोड़ कर गए, तो वह जहर खा कर मर जाएगी। उसके मां-बाप उसकी शादी किसी और के साथ तय कर चुके हैं। लाछां बताती है, पेमल तो मरने ही वाली थी, वही उसे तेजाजी से मिलाने का वचन दे कर रोक आई है। तेजाजी पनेर आए। पेमल से मिले। अत्यन्त रूपवती थी पेमल। दोनों बतरस में डूबे थे कि लाछां की आहट सुनाई दी। उसने तेजाजी को बताया कि चोर उसकी गायों को चुरा कर ले गए हैं…. अब उनके सिवाय उसका कोई मददगार नहीं।
तेजाजी फिर अपनी लीलण घोड़ी पर सवार हुए। उन्होंने चोरों का पीछा किया और उन्हें जा धरा। रास्ते में एक घटना और हुई। वे जब चोरों का पीछा कर रहे थे, उसी दौरान उन्हें एक काला नाग आग में घिरा नजर आया। उन्होंने नाग को आग से बाहर निकाला। नाग ने उन्हें वरदान की बजाय यह कह कर शाप दिया कि वे उसकी नाग की योनी से मुक्ति में बाधक बने।
नाग ने प्रायश्चित स्वरूप उन्हें डसने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने नाग को वचन दिया कि लाछां गूजरी की गायें चोरों से छुड़ा कर उसके सुपुर्द करने के बाद नाग के पास लौट आएँगे। तेजाजी ने पाया कि लाछां की गायें ले जाने वाले उसी मीणा सरदार के आदमी थे, जिसे उन्होंने पराजित करके खदेड़ भगाया था। उनसे लड़ते हुए तेजाजी बुरी तरह लहुलूहान हो गए। गायें छुड़ा कर लौटते हुए अपना वचन निभाने वे नाग के सामने प्रस्तुत हो गए। नाग को उनके क्षत्-विक्षत् शरीर पर दंश रखने भर को भी जगह नजर नहीं आई और अन्तत: तेजाजी ने अपनी जीभ पर सर्प-दंश झेल कर और प्राण दे कर अपने वचन की रक्षा की।
इतिहासकारों ने तेजाजी के निधन की तिथि दर्ज की: २८ अगस्त, ११०३ ईस्वी।
लोक
अपनी कहानी शुरू करने से पहले में आपका ध्यान अब तक दर्ज दो बातों की ओर लौटाना चाहूँगा। पहली बात यह कि के आरम्भ में मैंने ‘वचनबद्धता का पालन करने के लिए’ वाक्य पर जोर देते हुए उसे दोहराया था और दूसरी बात यह कि मैंने पहले-पहल जिस कण्ठ से तेजाजी का गीताख्यान सुना उस गायक का नाम शिवनारायण पाण्डिया बताया था।
मैंने यह भी बताया था कि शिवनारायण मेरा मौसेरा भाई था। यह उसी के मेटामोर्फोसिस अर्थात् कायान्तरण की कहानी है।
कथा
शिवनारायण उच्चारण के ग्राम्य-लाघव का शिकार हो कर स्योनाण पुकारा जाता था। वह मेरा सगा मौसेरा भाई था। वह हमारी रामसरे वाली मौसी का बेटा था। रामसरा जाट-बहुल चूरू जिले की सरदारशहर तहसील का एक छोटा-सा गाँव है। स्योनाण और मेरा ननिहाल तब चूरू और अब बीकानेर जिले के कस्बे श्रीडूँगरगढ़ में था। मैं शहरी बालक था और स्योनाण ठेठ देहाती। तीखे नाक-नक्श, गंदुमी रंग और गठीले नौजवान स्योनाण का अपने ननिहाल में ही नहीं बल्कि पूरे मोहल्ले में स्वागत होता था। यह सत्तर के दशक की बात है। गर्मियों की छुट्टियाँ ही मौका देती थीं कि माँ मुझे लेकर अपने पीहर जाती। स्योनाण अक्सर अकेला ही आता। वह मुझसे उम्र में बड़ा था। उसकी बड़ी आवभगत होती। मुझे भी वह अच्छा लगता था। उसके व्यक्तित्व में एक गुरुत्व जैसी कोई ची.ज थी, जो मुझे बड़ा लुभाती। वह बोलते समय आँखों को अर्धोन्मीलित कर लेता और धीरज भरे लम्बे-लम्बे वाक्य बोलता। उसकी इस अदा का स्रोत शायद उसके तेजा-गायन में था। शाम ढले हथाई जमती और एक बिन्दु पर आकर सब एक साथ बोल पड़ते, ‘हाँ, स्योनाण…. अब शुरू हो जा….।’
स्योनाण कहते ही अकृत्रिम भाव से गाना शुरू कर देता, ‘लाग्यौ रै लाग्यौ जेठ असाढ़ कंवर तेजा रे, निचोड़ै खेतां में मोती नीपजै….’ रेतीले टीलों की ढलानों के नीचे स्थित खेतों में तेजा हल चलाना शुरू करता और राजल, पेमल, लाछां गूजरी से होती हुई कथा तेजा के प्राणोत्सर्ग तक पहुँच कर ही विराम लेती। सन्नाटा-सा छा जाता। इस सन्नाटे में कितने ही स्त्री-पुरुष कण्ठ सुबकते सुनाई पड़ते। यहाँ तक आते-आते रात भी अपना आधा रास्ता तय कर चुकी होती थी।
कुछ बरस बीत चले। वह अस्सी के दशक का कोई शुरुआती साल रहा होगा। मेरे किसी ममेरे भाई की शादी थी। इसमें स्योनाण आया, तो उसकी धज एकदम बदली हुई थी। उसके काँधे पर एक दुनाली लटक रही थी और छाती पर बंधी थी कारतूसों की पेटी। बारात की निकासी होने लगी तब उसने दुनाली का मुँह खोल कर उसमें कारतूस ठूँसे और उसका रूख आकाश की तरफ रखते हुए कई फायर किए। उसके कारतूसों के धमाकों से धरा-गगन काँप उठे और देर तक मोरों की हड़बड़ाई हुई पीहू-पीहू सुनाई पड़ती रही। यह स्योनाण का कायान्तरण था और वह एक चरमपंथी राजनीतिक पार्टी के छुटभैये मगर दुर्दान्त-से राजनेता का खासुलखास बन चुका था।
बाद को जा कर मुझे पता चला, स्योनाण का तेजा अब उसके चित्त में से निकल कर इसी धराधाम में उसके सम्मुख प्रगट हो गया है। वह कोई और नहीं, उसके अपने क्षेत्र का विधायक है। स्योनाण अब शिवनारायण पाण्डिया की मुकम्मल हैसियत में अपने विधायकजी का पूर्णकालिक सहचर हो गया है। विधायकजी को जान का खतरा लगा ही रहता है, जैसा कि कथा में तेजाजी को भी लगा ही रहता था, इसलिए उन्होंने अपने परम विश्वसनीय शिवनारायण को लाइसेंस और लाइसेंसदार बन्दूक दिलवा दी है।
कहते हैं, कुछ वर्षों बाद शिवनारायण पाण्डिया उर्फ़ स्योनाण में खुदमुख्त्यारी के कुछ लक्षण पैदा हुए और वह विधायकजी के वामांग से दुहागन ब्याहता की भाँति खदेड़ दिया गया। मुझे मिली अन्तिम जानकारी यह थी कि पी-पीकर अपाहिजत्व की कगार पर पहुँचा शिवनारायण अब नितान्त गुमनाम और गुजिश्ता जिन्दगी जी रहा है। उसे उसकी चोरीशुदा गाय लौटा कर ला देने वाला कोई नहीं है, वह गाय जो कभी उसने अपने मन में लाछां गूजरी के गौ-झुण्ड में से चुन कर बांधी होगी….। उसके लिए तो पृथ्वी की हर गाय का दूध दुहने से पहले ही फट चुका है, जैसा कि एक राजस्थानी लोकोक्ति में बयान होता है, ‘मन फाट्या चित औझग्या, दूधां लाव न साव….!’
लोक
रही बात वचनबद्धता वाले वाक्य पर मेरे जोर देने की…. उसके बारे में मुझे अब और कुछ नहीं कहना है।