आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

1857 – Search for Material: Asad Zaidi

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१८५७: सामान की तलाश

१८५७ की लड़ाईयाँ जो बहुत दूर की लडाईयाँ थीं
आज बहुत पास की लड़ाईयाँ हैं

ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब
हर गलती अपनी ही की हुई लगती है
सुनाई दे जाते हैं ग़दर के नगाड़े और
एक ठेठ हिन्दुस्तानी शोरगुल
भयभीत दलालों और मुखबिरों की फुसफुसाहटें
पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलकदमी

हो सकता है यह कालांतर में लिखे उपन्यासों और
व्यवसायिक सिनेमा का असर हो

पर यह उन १५० करोड़ रुपयों का शोर नहीं
जो भारत सरकार ने ‘आज़ादी की पहली लड़ाई’ के
१५० साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंज़ूर किए हैं
उस प्रधानमन्त्री के कलम से जो आज़ादी की हर लड़ाई पर
शर्मिंदा है और माफ़ी मांगता है पूरी दुनिया में
जो एक बेहतर गुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी
कुरबान करने को तैयार है

यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी अपनी गद्दियों पर बैठे बंकिमों और अमीचंदों और हरिश्चंद्रों
और उनके वंशजों ने
जो ख़ुद एक बेहतर गुलामी से ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सन सत्तावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेन्द्रनाथों, इश्वरचंदों, सैयद अहमदों,
प्रतापनारायणों, मैथिलीशरणों और रामचन्द्रों के मन में
और हिन्दी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सत्तर अस्सी साल के बाद सुभद्रा ही को आई

यह उस सिलसिले के याद है जिसे
जिला रहे हैं अब १५० साल बाद आत्महत्या करते हुए
इस ज़मीन के किसान और बुनकर
जिन्हें बलवाई भी कहना मुश्किल है और जो चले जा रहे हैं
राष्ट्रीय विकास और राष्ट्रीय भूखमरी के सूचकांकों की खुराक बनते हुए
विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकलकर सामूहिक क़ब्रों और मरघटों की तरफ़
एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह
किसने कर दिया है उन्हें इतना अकेला?
१८५७ में मैला-कुचलापन
आम इंसान की शायद नियति थी – सभी को मान्य
आज वह भयंकर अपराध है

लड़ाईयाँ अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए
किसी और युग में किन्हीं और हथियारों से
कई दफे तो वे मैले-कुचले मुर्दे ही उठकर लड़ने लगते हैं फिर से
जीवितों को ललकारते हुए जो उनसे भी ज़्यादा मृत हैं
पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार के नाम
या हमदर्द समझकर बताने लगते हैं अब मैं नजफगढ़ की तरफ़ जाता हूँ
या ठिठककर पूछने लगते हैं बख्तावरपुर के रास्ता

१८५७ के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को
कि किन जागीरों की वापसी के लिए वे लड़ते थे
और हम उनके लिए कैसे मरते थे

कुछ अपनी बताओ

क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय

(यह कविता “सामान की तलाश” (२००८) से)

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3 comments
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  1. Terrible translation.

  2. I don’t think the translation works well. ‘Samaan’ for one is not material. There are other gaping holes as well.

  3. एक बहुत शानदार कविता का उतना ही अच्छा अनुवाद !
    बधाई!
    गिरिराज भाई!!

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