विशेष – एक तिलस्मी उपाख्यान: वागीश शुक्ल
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खण्ड I
अध्याय 1: मौत की दस्तक
मृत्यु को कई समयोँ मेँ कई जगहोँ पर मौजूद रहना पड़ता है.
1.1 मङ्गला श्रीमुख का अठारहवाँ जन्मदिन
1.1.1
कलियुग की बावनवीँ शताब्दी अर्थात ईसा की इक्कीसवीँ सदी मेँ एक दिन शाम को मृत्यु शिवगढ़ी गाँव मेँ उस गोली मेँ ठहर गयी जो माउज़र से निकल कर पण्डित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख के सीने मेँ घुस रही थी.
1.1.2
शिवगढ़ी गाँव एक बड़ा गाँव था और उसमेँ सबसे बड़ा मकान पण्डित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख का था जिसमेँ वे मृत्यु के समय अपने उस कमरे मेँ अकेले बैठे हुए थे जो उनका पुस्तकालय कहलाता था. माउज़र से निकल कर गोली उनके सीने मेँ घुसी और वे एक चीख़ मार कर उस कुरसी पर लुढ़क गये जिस पर वे बैठे थे. एक पुस्तक पर उनकी मुट्ठी कसी की कसी रह गयी.
इस किताब को योँ तो एक सबूत के तौर पर थाने मेँ जमा कर लिया गया था क्योँकि न केवल क़त्ल के वक़्त वह मक़तूल के हाथ मेँ थी बल्कि मक़तूल के ख़ून के छीँटे भी उस किताब पर पड़े हुए थे लेकिन जैसा कि क़त्ल की जाँच करने वाले पुलिस के सभी छोटे-बड़े हाकिमोँ का कहना हुआ, उससे क़ातिल के बारे मेँ कोई सुराग़ मिलना नामुमकिन था क्योँकि वह कालिदास की मशहूर एपिक ‘रघुवंश’ थी, मक़तूल के कुतुबख़ाने से थी और किसी जाँच मेँ मक़तूल की उँगलियोँ के निशानोँ के अलावा किसी और की उँगलियोँ के निशान उस पर नहीँ मिले.
फिर भी शक की गुंजाइश थी क्योँकि यह बात ग़ौरतलब थी कि हालाँकि इस किताब की छपी हुई जिल्देँ बाज़ार मेँ ब-आसानी मिलती हैँ, मक़तूल के हाथ मेँ इस किताब का एक मख़्तूता था. इहतियातन कई यूनिवर्सिटियोँ के संस्कीरत शोबोँ के उस्तादोँ से इस मख़्तूते की जाँच करवायी गयी लेकिन सभी ने यह कहा कि इसमेँ एक लाइन भी ऐसी नहीँ जो ‘रघुवंश’ की छपी हुई जिल्दोँ मेँ न मौजूद हो. अलबत्ता, एक उस्ताद ने यह तस्लीम किया कि आम तौर पर किताबोँ के आख़ीर मेँ ऐसे अलफ़ाज़ होते हैँ जो यह बताते हैँ कि किताब पूरी हो चुकी है और चूँकि इस मख़्तूते मेँ इख़्तिताम बताने वाले ऐसे अलफ़ाज़ न थे, यह ख़याल ग़ालिब होता है कि इस मख़्तूते का कातिब यह मानता था कि ‘रघुवंश’ मेँ उन्नीस कैंटो न हो कर कुछ ज़ियादा हैँ. उन उस्ताद ने बताया कि संस्कीरत मेँ ‘कैंटो’ को ‘सर्ग’ कहते हैँ. उन्होँने यह भी बताया कि एक पुरानी अफ़वाह के मुताबिक ‘रघुवंश’ मेँ छब्बीस सर्ग हैँ लेकिन यह अफ़वाह बेबुनियाद है.
फिर भी, मक़तूल के कुतुबख़ाने मेँ तलाश की गयी कि शायद ‘रघुवंश’ के कुछ और कैंटो किसी अलग जिल्द मेँ मिल जाँय लेकिन यह तलाश नाकामयाब रही.
हाँ एक बात दर्ज़ की गयी कि मख़्तूते के शुरू मेँ एक सफ़हे पर सिर्फ़ एक अक्षर ‘ऐं‘ बड़े ख़त मेँ लिखा हुआ था. इस से कोई सुराग़ मिल पाना नामुमकिन था क्योँकि उस्तादोँ ने बताया कि यह सिर्फ़ यह साबित करता है कि मक़तूल देवी का पुजारी था जो मुल्क में करोड़ोँ की तादाद मेँ हैँ और फिर यह कोई छिपी बात भी न थी क्योँकि मक़तूल के हर जानने वाले ने उस के देवीभक्त होने की ताईद की.
लिहाज़ा इसके मद्देनज़र कि मक़तूल एक पण्डित था और क़दीम अदब का बहुत शौकीन था, यह बिला शक तस्लीम किया जा सकता था कि यह एक इत्तिफ़ाक़ ही है कि मक़तूल अपने क़त्ल के वक़्त यह किताब पढ़ रहा था; यह पुख़्ता तौर पर माना जा सकता था कि मक़तूल अपनी मामूली आदत के मुताबिक ही यह किताब पढ़ रहा था और क़त्ल का इस किताब से कोई तअल्लुक नहीँ है.
‘पूर्वांचल टाइम्स’ से लेकर ‘इन्टरनेशनल हेराल्ड ट्रिब्यून’ तक के पत्रकारगण भी इससे सहमत हुए और पूर्वांचल टेलीविज़न से ले कर सी.एन.एन. तक आने वाले अपराध विशेषज्ञ भी.
1.1.3
वस्तुतः पण्डित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख की हत्या के समाचार का स्थानीय से बढ़ कर अन्तरराष्ट्रीय हो जाना कई कारणोँ से था जिनमेँ कुछ प्रमुख राजनीतिक, ऐतिहासिक, और सामाजिक कारणोँ को ही गिना पाना यहाँ सम्भव हो पायेगा.
पहले राजनीतिक कारणोँ की बात की जाय. जब एक लंबे विचार-विमर्श के बाद केन्द्रीय सरकार और केन्द्रीय विपक्ष के बीच यह तय हुआ कि अयोध्या, मथुरा और वाराणसी को केन्द्रशासित प्रदेश का दरज़ा दे दिया जाय तथा पूर्वांचल, पश्चिमांचल और मध्यांचल नाम से तीन नये राज्य बनाये जाँय तो पूर्वांचल वालोँ के सारे ‘स्वाभाविक सांस्कृतिक अधिकार’ की दुहाइयोँ के बावुजूद मध्यांचल वाले इस बात पर अड़ गये कि लखनऊ तो मध्यांचल की ही राजधानी होगी. केन्द्रीय सरकार और केन्द्रीय विपक्ष के बीच यह भी तय हो गया. पूर्वांचल वाले फिर इलाहाबाद को अपनी राजधानी बनाने को उद्यत हुए किन्तु पिछले माघ मेले मेँ प्रतिदिन सत्तर तीर्थयात्रियोँ को मौत के घाट उतारने की अपनी घोषणा को जब आतंकवादियोँ ने विना किसी बाधा के पूरे माघ महीने पूरा कर दिखाया तो केन्द्रीय सरकार और केन्द्रीय विपक्ष के बीच यह भी तय होने की बात उठने लगी कि इलाहाबाद को भी केन्द्रशासित प्रदेश घोषित कर दिया जाय. हार-थक कर पूर्वांचल वालोँ ने अयोध्या के सामने सरयू के उस पार शिवगढ़ी मेँ अपनी एक नयी राजधानी बनाने की माँग रखी जो केन्द्रीय सरकार और केन्द्रीय विपक्ष के बीच सहमति का एक और विन्दु लगभग बन चुकी थी कि पण्डित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख इस प्रस्ताव के मुखर विरोधी के रूप मेँ सामने आये. यह कुछ विस्मय के साथ देखा गया कि केन्द्रीय सरकार और केन्द्रीय विपक्ष के बीच पण्डित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख के विरोध को स्वीकार करने पर भी सहमति हो गयी और अन्ततः शिवगढ़ी से तीन कोस दूर एक गाँव रजपुरवा को राजनगर नाम दे कर पूर्वांचल की राजधानी के रूप मेँ विकसित करने का निश्चय हो गया. यह माना जा रहा था कि पण्डित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख जिसे आशीर्वाद देँगे वही पूर्वांचल का प्रथम मुख्यमन्त्री होगा. ऐसी परिस्थिति मेँ इस हत्या के पीछे राजनीतिक कारणोँ की सम्भावना से इन्कार नहीँ किया जा सकता.
शिवगढ़ी मेँ राजधानी न बने, इस सहमति के पीछे पण्डित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख का व्यक्तित्व अवश्य प्रभावी रहा होगा किन्तु राजधानी के रूप मेँ शिवगढ़ी के चयन का विरोध पुरातत्त्व-विभाग, पर्यावरण-मन्त्रालय और रक्षा-मन्त्रालय ने भी किया था. पुरातत्त्व-विभाग का कहना था कि शिवगढ़ी देश का सबसे पुराना गाँव है अतः वहाँ उस अंधाधुंध खुदाई की अनुमति नहीँ मिलनी चाहिए जो राजधानी बनने के बाद पुनर्निर्माण के सिलसिले मेँ अवश्यम्भावी है. पर्यावरण-मन्त्रालय का कहना था कि शिवगढ़ी मेँ ऐसे पेड़ोँ की बहुतायत है जो हज़ारोँहज़ार साल पुराने हैँ अतः वहाँ उस अंधाधुंध पेड़-कटाई की अनुमति नहीँ मिलनी चाहिए जो राजधानी बनने के बाद पुनर्निर्माण के सिलसिले मेँ अवश्यम्भावी है. और रक्षा-मन्त्रालय का कहना था कि शिवगढ़ी मेँ देश की सबसे आधुनिक अनुसन्धान-शाला उसके द्वारा खोली गयी है अतः उसके इर्दगिर्द बेमतलब आबादी बढ़ाने से अनुसन्धान-शाला की वर्तमान सुरक्षा-व्यवस्था मेँ बाधा पहुँचेगी.
वस्तुतः कई विदेशी टेलीविज़न चैनलोँ ने इसपर ही अधिक बल दिया कि शिवगढ़ी गाँव का इतिहास और भूगोल दोनोँ ही शायद कई हज़ार वर्ष पुराने हैँ और इस तरह वह एक बहुमूल्य निधि है जिस पर केवल स्थानीय प्रशासन का नियंत्रण अनुत्तरदायी कहा जायगा. विदेशी और उसकी देखादेखी देसी मीडिया मेँ भी रक्षा-मन्त्रालय की भी आलोचना हुई कि उसने आख़िर यहाँ अपनी अनुसन्धान-शाला खोल कर प्रकृति के इस परिवेश से कैसे छेड़छाड़ की.
सामाजिक कारणोँ की चर्चा बहुत थोड़े समय तक हुई. हत्या के तीसरे दिन ही क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी का बयान आ गया था कि यद्यपि पण्डित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख उस सामाजिक व्यवस्था के अंग थे जिसे मिटाने के लिए क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी कटिबद्ध है, पण्डित जी से उन्हेँ कोई शिकायत नहीँ थी और पार्टी का नाम इस सिलसिले मेँ घसीटना ग़ैरज़िम्मेदाराना हरकत है. स्थानीय थाने से लेकर सी.बी.आई. तक की जाँच मेँ ऐसी कोई सम्भावना सिरे से नकार दी गयी. क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी के बयान पर प्रबुद्धसंघी बुद्धिजीवियोँ ने कुछ विस्मय अवश्य प्रकट किया क्योँकि मशहूर था कि विविध भूमिसुधारोँ का कोई प्रभाव पण्डित दुर्गाशङ्कर की पैतृक ज़मीँदारी पर नहीँ पड़ा है.
1.1.4
हत्या किसने की यह तो नहीँ पता लगा किन्तु बहुत सी संभावनाओँ मेँ से सी.बी.आई. जाँच तक पहुँचते-पहुँचते एक ही स्वीकार्य रह गई थी. इस पक्ष की ओर ‘टाइम’ पत्रिका की कवर-स्टोरी ने ध्यान दिलाया कि पण्डित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख पचीस वर्ष पहले तक हार्वर्ड विश्वविद्यालय मेँ फिज़िक्स के प्रोफ़ेसर थे और वहाँ से इस्तीफ़ा दे कर अचानक एक दिन भारत चले आये थे. दबी ज़बान से उस रिपोर्ट मेँ यह इशारा भी किया गया था कि इस इस्तीफ़े का कुछ सम्बन्ध रक्षा-मन्त्रालय की उस अनुसन्धान-शाला से भी है जो पण्डित जी की घर-वापसी के पाँच साल बाद शिवगढ़ी मेँ बनायी गयी. जो भी हो, जाँच-एजेंसियोँ के काम की बात यह थी कि हत्या के दिन एक विदेशी जो अपने को एक अमरीकी पत्रिका का पत्रकार बताता था, शिवगढ़ी मेँ मौजूद था और जिस समय पण्डित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख की हत्या हुई वे उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे क्योँकि उसे एक इंटरव्यू देने के लिए वे स्वीकृति दे चुके थे. यह माना गया कि यह पत्रकार उनसे हार्वर्ड के दिनोँ के बारे मेँ, उनके इस्तीफ़े के कारणोँ के बारे मेँ और उनकी वर्त्तमान शोध-गतिविधियोँ के बारे मेँ कुछ सवाल ज़रूर करेगा.
स्थानीय पुलिस की कुछ लानत-मलामत भी इस बात के लिए हुई कि उसने मामूली पूछताछ के बाद उसे जाने दिया था. किन्तु यह सच है कि यद्यपि शक की सुई को इस पत्रकार के चारोँ ओर घुमाया जाना बंद नहीँ हुआ, सी.बी.आई. को भी उसके विरुद्ध कोई प्रमाण नहीँ मिल पाये थे. उस पत्रकार ने भी अपने को छिपाने की कोई कोशिश नहीँ की थी. और सच पूछिए तो विदेशी मीडिया का ध्यान इस हत्या की ओर उस छोटी सी रिपोर्ट के नाते भी गया जो उसने फ़्रांस के ‘ल माँद’ मेँ छपवायी.
जैसा कि सी.बी.आई. प्रवक्ता ने बाद मेँ चल कर स्वीकार किया, यह फ़ाइल उन फ़ाइलोँ मेँ से थी जिन्हेँ बंद करने पर वे मजबूर हुए क्योँकि कुछ भी पता लगाने मेँ वे असमर्थ रहे.
1.1.5
वाशिंगटन मेँ बैठे डान मारियो को अपने स्क्रैंबलर पर सन्देश मिला, “पहला”.
1.1.6
मङ्गला श्रीमुख नैनोटेक्नॉलजी की अपनी लैब मेँ थीँ लेकिन इस समय उनकी चिन्ता का विषय यह था कि वे अपने अठारहवेँ जन्मदिन की पार्टी किस प्रकार देँ. उनकी सहेलियोँ का प्रथम आग्रह यह था कि वे अपना कौमार्य इस अवसर पर अवश्य ही भङ्ग करवायेँ. यह सलाह उन्हेँ तब भी दी गयी थी जब वे तेरहवेँ जन्मदिन पर टीन्स मेँ शामिल हुईँ और तब भी जब वे सोलहवेँ जन्मदिन पर स्वीट सिक्स्टीन बनीँ. पिछले दोनोँ अवसरोँ पर यह सलाह उन्होँने ठुकरा दी थी.
इस बार भी उन्होँने यह आग्रह न मानने का निश्चय किया. किन्तु सहेलियोँ का द्वितीय आग्रह भी अस्वीकार कर दिया जाय, यह सख्य-भाव की भावना के अत्यन्त प्रतिकूल प्रतीत हो रहा था. अतः मङ्गला श्रीमुख ने क़ानून से न डरते हुए सहेलियोँ द्वारा बताये गये एक कोलंबियन सप्लायर को आदेश दिया कि वह सर्वपरिशुद्ध कोकीन की आवश्यक मात्रा उनके उस विशाल प्रासाद मेँ सायंकाल तक पहुँचा दे जिसमेँ वे मसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आफ़ टेक्नॉलजी की ग्रैजुएट स्टूडेंट मात्र होते हुए भी ऐश्वर्य और विलास के वातावरण मेँ रहती थीँ क्योँकि मसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट आफ़ टेक्नॉलजी के भारतीय छात्र संघ मेँ उनका ‘सोनचमची’ नाम पड़ा ही इसलिए था कि वे मुहँ मेँ चाँदी का नहीँ सोने का चम्मच ले कर पैदा हुई थीँ. तेरहवेँ, सोलहवेँ, और अब अठारहवेँ, जन्मदिन पर जिन सहेलियोँ का प्रथम आग्रह मङ्गला श्रीमुख ठुकराती रही थीँ, उनका पीठ-पीछे यह कहना था कि सम्भवतः उस आग्रह को स्वीकार करने हेतु भी उसे एक स्वर्णचम्मच की ही प्रतीक्षा है.
इधर से निश्चिन्त हो कर उन्होँने अपने सजने-सँवरने की समस्या पर विचार प्रारम्भ ही किया था कि उन्हेँ अपने पितामह पण्डित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख की हत्या का समाचार मिला. यह समाचार उन्हेँ जिस व्यक्ति ने उनके निजी और नितान्त गुप्त माने जाने वाले मोबाइल पर दिया, उसका दावा था कि यह हत्या उसी ने करवाई है.
1.2 स्वदेश की नाक
1.2.1
कलियुग की बावनवीँ शताब्दी के पूर्वार्ध मेँ उसी दिन जिस दिन पण्डित दुर्गाशङ्कर श्रीमुख की हत्या हुई, मृत्यु उस ट्रक मेँ जा बैठी जो महादेवपुरा से दुर्गागंज की ओर तेज़ी से भाग रहा था और देवदत्त पण्डित के ऊपर चढ़ने वाला था.
देवदत्त पण्डित की मौत एक हादसा मानी गयी. एक पंचनामे के बाद लाश उनके पट्टीदार हरिदत्त पण्डित को दे दी गयी. देवदत्त पण्डित की जमा-पूँजी मेँ यद्यपि थोड़ा-बहुत इज़ाफ़ा हुआ था क्योँकि हादसे के वक़्त वह महादेवपुरा के ग्रामीण बैंक से सूखा-राहत के मुआवज़े वाले चार सौ बयालीस रूपये नक़द ले कर लौट रहे थे, यह सर्वस्वीकृत था कि हरिदत्त पण्डित के ऊपर देवदत्त पण्डित के किरिया-करम का जो बोझ आ पड़ा था उसको देखते हुए यह रक़म तो क्या, वह डेढ़ बीघे ज़मीन भी नाकाफ़ी थी जो देवदत्त पण्डित के मर जाने के नाते अब हरिदत्त पण्डित की जोत मेँ आने वाली थी. हाँ, उनकी चेलाही और उपरोहिती के कुछ घर ज़रूर हरिदत्त पण्डित को मिलेँगे लेकिन ये घर भी मामूली किसानोँ के थे. पूरे दुर्गागंज गाँव मेँ इस बात पर पूरा मतैक्य था कि देवदत्त पण्डित के इकलौते बेटे कोदई के घर से भागने के बाद यद्यपि यह नहीँ कहा जा सकता कि हरिदत्त पण्डित ने देवदत्त पण्डित के प्रति अपने बैर मेँ कोई कमी दिखायी हो, आख़िर तो उन्हेँ ही यह ज़िम्मेदारी उठानी पड़ेगी क्योँकि अब तो जो थे वही थे. लिहाज़ा जब देवदत्त पण्डित के घर मेँ दीवाल पर बेठन मेँ लिपटी पोथी की ओर उँगुली दिखा कर हरिदत्त पण्डित ने कुछ व्यंग्य से यह कहा कि, “कोदई अगर यहाँ कभी लौटे भी तो इस पोथी को छोड़ कर कुछ नहीँ पायेँगे” तो उनके मुँह पर गाँव मेँ इस बात को अनुचित कहने वाला कोई नहीँ था यद्यपि हरिदत्त पण्डित से भी लोग वैसे ही नहीँ डरते थे जैसे वे देवदत्त पण्डित से नहीँ डरते थे.
जो जानते थे वे जानते थे कि यह पोथी देवदत्त पण्डित के पिता रविदत्त पण्डित के हाथोँ से लिखी गयी ‘मेघदूत’ की एक प्रति थी जिसके पहले पन्ने पर मोटे अक्षरोँ मेँ सिर्फ़ क्लीं लिखा हुआ था क्योँकि रविदत्त पण्डित की देवीभक्ति को भला कौन नहीँ जानता था. देवदत्त पण्डित ने प्रथमा परीक्षा मेँ प्रथम प्रयास मेँ असफल होने के बाद घर मेँ पड़ी किसी पोथी को हाथ लगाने की क़सम खा ली थी. जिस समय देवदत्त पण्डित ने चिल्लाते हुए यह क़सम खायी उस समय रविदत्त पण्डित के हाथ मेँ यही पोथी थी जिसे चुपचाप उन्होँने बेठन मेँ लपेट कर दीवाल मेँ बने आले पर रख दिया था. बाद मेँ वे अपनी पुस्तकोँ को कहीँ और रख आये थे किन्तु न जाने क्योँ यह पुस्तक घर मेँ रह गयी. रविदत्त पण्डित की मृत्यु के बाद प्रतिवर्ष उनके एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अवसर पर इस पुस्तक को देवदत्त पण्डित एक बार नियम से धूप दिखाते और नया मोरपंख उसके पन्नोँ के बीच रखते.
1.2.2
वाशिंगटन मेँ बैठे डान मारियो को अपने स्क्रैंबलर पर सन्देश मिला, “दूसरा”.
1.2.3
प्रोफ़ेसर श्रीवत्स पञ्चप्रवर ने फिज़िक्स मेँ नोबेल पुरस्कार स्वीकार करने के समय कुछ व्यक्तिगत बातेँ अपने जीवन के बारे मेँ बतायीँ जो उनके बायोडाटा मेँ कहीँ नहीँ थीँ. उन्होँने बताया कि उनके पिता देवदत्त पण्डित ने उनका नाम कोदई रखा था किन्तु प्रिंसटन मेँ पढ़ते समय उन्होँने फ़ार्म मेँ अपना नाम ‘श्रीवत्स पञ्चप्रवर’ लिखा. आज वे महसूस करते हैँ कि पिता के दिये नाम को पूरी तरह ठुकरा कर उन्होँने ग़लती की थी. अतः वे आज से अपना नाम ‘कोदई श्रीवत्स पञ्चप्रवर’ घोषित करते हैँ.
वे अपना स्वीकार-भाषण समाप्त कर के बाहर निकल ही रहे थे कि उनका नितान्त गुप्त माना जाने वाला मोबाइल बजा. ज्योँही उन्होँने ‘हलो’ कहा, उधर से एक व्यक्ति ने बताया कि उनके पिता देवदत्त पण्डित की हत्या उसके आदेश पर कर दी गयी है यद्यपि इसे एक हादसा माना गया है.
कोदई एस पञ्चप्रवर उद्यत हुए कि स्वदेश की और चलेँ और वे स्वदेश के दूतावास मेँ पहुँचे क्योँकि इधर यह एडवाइज़री सभी एयरलाइन्स को भेजी गयी थी कि स्वदेश के लिए हवाई टिकट तभी मिले जब स्वदेश के दूतावास की लिखित अनुमति हो क्योँकि विना इस लिखित अनुमति के स्वदेश के कस्टम से यात्री को बाहर नहीँ निकलने दिया जायगा.
राजदूत ने कोदई से कहा, “प्रोफ़ेसर पञ्चप्रवर, आप पर स्वदेश को गर्व है. देखिए, यह अख़बार लिखता है कि आपने फिज़िक्स मेँ नोबेल पुरस्कार और गणित मेँ आबेल पुरस्कार एक साथ प्राप्त किये हैँ और इसलिए आप यदि अपना नाम कोदई बताते हैँ तो हमेँ चाहिए कि आप को नोबेल आबेल कोदई कहेँ. क्या आप मुझे इस निकटता की अनुमति देँगे कि मैँ नोबेल आबेल कोदई को प्रथामाक्षरोँ से संक्षिप्त कर के आप को ‘नाक’ कहा करूँ? आप वस्तुतः स्वदेश की नाक हैँ.
किन्तु इस समय आप एक ग्रीन कार्ड होल्डर हैँ और मुझे यह खेदपूर्वक सूचित करना पड़ रहा है कि जितनी जल्दी आप स्वदेश लौटना चाहते हैँ उतनी जल्दी स्वदेश की सरकार आप को लौटने नहीँ दे सकती क्योँकि पिछले पाँच वर्षोँ मेँ आप की गतिविधियोँ की पूरी जाँच किये विना हम आप को स्वदेश का टिकट ख़रीदने की अनुमति नहीँ दे सकते और इस जाँच मेँ यदि एक वर्ष की जाँच हम एक दिन मेँ ही पूरी कर लेँ तो भी एक सप्ताह लग ही जायगा क्योँकि स्वदेश मेँ केन्द्रीय सरकार फ़ाइव-डे-वीक के हिसाब से काम करती है.
ख़ैर, ख़ुफ़िया रिपोर्टोँ की तो आप चिन्ता न करेँ, इस समय मेरा एक बैचमेट ही उस विभाग का हेड है. आप एक सप्ताह बाद मिलेँ, मैँ वादा करता हूँ कि यदि मैँ छुट्टी पर नहीँ चला गया तो आपको टिकट ख़रीदने की अनुमति अवश्य मिल जायगी.”
फलतः दिल कड़ा कर के कोदई ने आबेल पुरस्कार समिति द्वारा पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार वह पुरस्कार भी प्राप्त किया. स्वीकार-भाषण मेँ उनसे रुलाई रोकी न गयी और वे अपने गाँव और बचपन के बारे मेँ फफक-फफक कर बताने लगे.
अगले दिन जो समाचार छपा उसमेँ फिज़िक्स मेँ नोबेल पुरस्कार और गणित मेँ आबेल पुरस्कार एक साथ पाने वाले इस यंग इंडियन वंडर की उपलब्धियोँ के विस्तृत बखान से कुछ अधिक ही स्थान उस अनोखी दास्तान को मिला जो इस स्वीकार-भाषण से सामने आयी. जिन्होँने लाइव ब्राडकास्ट नहीँ देखा और अख़बार भी ध्यान से नहीँ पढ़े उनकी सहायता के लिए संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है.
कोदई श्रीवत्स पञ्चप्रवर पूर्वांचल के एक छोटे से गाँव दुर्गागंज मेँ पैदा हुए थे. उनसे पहले कई सन्तानोँ के दिवंगत हो जाने से चोट खायी उनकी माँ ने ग्राम-वृद्धाओँ की सलाह पर उन्हेँ तुरन्त बुधिया कारवारी के हाथ पारम्परिक मूल्य सवा सेर कोदो की क़ीमत पर बेँच दिया. अनिष्टकारी ग्रह अब बच्चे का कुछ बिगाड़ न सकते थे क्योँकि वह बुधिया का बेटा था, राजमती पंडिताइन का नहीँ. जब राजमती पंडिताइन ने बच्चे को वापस चाहा तो बुधिया ने पारम्परिक मूल्य ढाई सेर कोदो पर बच्चा वापस करने से इन्कार कर दिया. फलतः देवदत्त पण्डित को विवश हो कर अपनी ज़मीन मेँ उसे झोँपड़ी डालने की अनुमति देनी पड़ी और तब जा कर उन्हेँ अपना वंशधर पुत्र मिला. कोदो दे कर जान बचाने वाले तमाम बच्चोँ की तरह इस बच्चे को भी कोदई नाम दिया गया.
इसी के साथ एक बाक्स मेँ यह समाचार अलग से छपा था कि टेक्सास की एक कंपनी ने ‘टेक्सास कोदो’ नाम से कोदो की एक नयी प्रजाति खोज ली है, और इसके पेटेंट के लिए आवेदन कर दिया है. इस कंपनी के वैज्ञानिकोँ का दावा था कि बल, बुद्धि, विद्या, और पौरुष के विकास मेँ ‘टेक्सास कोदो’ की गुणवत्ता भारतीय कोदो की अपेक्षा कई गुना अधिक है.
साथ ही, एक दूसरे बाक्स मेँ मियामी के एक विश्वविद्यालय मेँ इंडिया स्टडीज़ विभाग के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर जान कार्टर निक्सन का इंटरव्यू भी छपा था जिसमेँ उन्होँने बताया था कि भारत मेँ जब कोई बालक असाधारण मेधा से सम्पन्न होता है तो लोग पूछते हैँ, “क्या तुमने कोदो देकर पढ़ाई की है?”
अस्तु, कोदई की व्यथा-कथा पर लौटते हुए, अख़बार मेँ छपा था कि कोदई के पितामह पण्डित रविदत्त शुक्ल ने यदि पाँच बरस की उम्र मेँ ही कोदई का जनेऊ कर दिया तो इसके पीछे उनका ‘बुधिया का बेटा’ होना प्रमुख कारण था. किन्तु, कोदई ने स्वीकार-भाषण मेँ सगर्व कहा कि वे बुधिया की बेटी सिधिया को जो कोदई से दस वर्ष बड़ी थी, अपनी बड़ी बहन मानते हैँ. उन्होँने यह भी बताया कि छोटी बहन के नाम पर उनके पास बुधिया की दूसरी बेटी रिधिया है जो उनसे तीन बरस छोटी है और इस प्रकार अब अठारह बरस की होगी. इन दो बहनोँ को छोड़ दिया जाय तो कोदई इकलौती सन्तान थे.
कोदई ने बताया कि वे ग्यारहवेँ बरस की उम्र और छठी कक्षा तक पास के शिवगढ़ी गाँव मेँ पढ़े और अचानक एक दिन उन्हेँ प्रेरणा मिली कि वे गाँव छोड़ कर सीधे इलाहाबाद चले जाँय ताकि वहाँ अच्छी पढ़ाई कर सकेँ. इलाहाबाद का चुनाव इसलिए स्वाभाविक था कि उनके बहनोई, अर्थात् सिधिया के पति सिवदीन मास्टर, वहाँ सन्त रैदास विद्यामन्दिर मेँ प्रिंसिपल थे. वे रातोँरात भागे और आख़िरकार सिवादीन मास्टर का घर ढूंढ़ निकालने मेँ कामयाब रहे. वहाँ उनका स्वागत हुआ किन्तु दो शर्तोँ पर. पहली यह, कि सिधिया किसी भी तरह अपने जनेऊधारी भाई को अपनी रसोई मेँ शामिल करने को राज़ी न हुई और यह तय हुआ कि कोदई अपना भोजन स्वयं बनायेँगे.
दूसरी शर्त यह थी कि सिवदीन मास्टर ने साफ़ कर दिया कि कोदई बाबू का नाम तो वे सन्त रैदास विद्यामन्दिर मेँ लिख लेँगे मगर पास करवाने का ज़िम्मा उनका नहीँ है और अगर कोदई बाबू ने ठीक से पढ़ाई नहीँ की तो रिश्तेदारी का कोई लिहाज़ न करते हुए वे उनकी ख़बर अपनी बेँत से लेँगे जो सन्त रैदास विद्यामन्दिर मेँ मशहूर थी. नाम लिखने के लिए उन्होँने कोदई जैसे गँवारू नाम से भरती करने से अरुचि दिखायी. उपयुक्त नाम चुनने से सम्बन्धित विचारविमर्श के दौरान सिधिया ने एक कुण्डली निकाल कर दी जो कोदई बाबू के पितामह रविदत्त पण्डित के हाथोँ की बनाई हुई थी और न जाने क्योँ सिधिया के पास थी. इस कुण्डली मेँ कोदई बाबू का नाम ‘श्रीवत्स’, आस्पद ‘पञ्चप्रवर’ और पुकारनाम ‘कोदई’ लिखा हुआ था. सिवदीन मास्टर ने घोषित किया कि कल सन्त रैदास विद्यामन्दिर मेँ कोदई बाबू का दाखिला ‘श्रीवत्स पञ्चप्रवर’ के नाम से हो जायगा.
बेँत के इस्तेमाल की नौबत न आयी. दूसरे दिन सिवदीन मास्टर विश्वविद्यालय मेँ अंग्रेज़ी के अपने गुरु रह चुके डाक्टर लालता प्रसाद वर्मा से मिलने गये थे और कोदई बाबू को भी अपने साथ लेते गये थे. उस समय डाक्टर लालता प्रसाद वर्मा के मित्र श्रीनिवास सुब्रमनियन भी वहाँ मौजूद थे जो गणित विभाग मेँ प्रोफ़ेसर थे तथा उनके साथ बाब किंग भी जो प्रिंसटन मेँ फिज़िक्स के प्रोफ़ेसर थे और इस विश्वविद्यालय मेँ भाषण देने के लिए आये हुए थे. शिष्टाचारवश कोदई बाबू से डाक्टर लालता प्रसाद वर्मा ने कुछ उनकी पढ़ाई-लिखी के बारे मेँ पूछताछ की जिसमेँ थोड़ी देर बाद प्रोफ़ेसर श्रीनिवास सुब्रमनियन और प्रोफ़ेसर बाब किंग ने भी दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी. यह बातचीत पूरे साढ़े तीन घंटे चली जिसके बाद प्रोफ़ेसर बाब किंग डिनर के लिए अपने होटल की ओर चले किन्तु कोदई को अपने साथ लेते गये.
इसके बाद कोदई का कुछ पता न लगा किन्तु कोई एक सप्ताह के बाद वे प्रोफ़ेसर बाब किंग के साथ प्रिंसटन मेँ दिखे और वहाँ कई सीढियाँ कूदते हुए अन्ततः उन्नीस वर्ष की उम्र मेँ उन्हेँ प्रिंसटन मेँ फिज़िक्स के प्रोफ़ेसर पद पर पदारूढ देखा गया.
यहाँ लेखक अपना कर्तव्य समझता है कि इस स्वीकार-भाषण मेँ एक क्षेपक डालते हुए पाठकोँ को यह बताये कि इस घटनाचक्र का एक दुष्परिणाम यह हुआ कि सिवदीन मास्टर अपने इस मूल सङ्कल्प से विचलित होने को बाध्य हुए कि वे तत्काल दुर्गागंज ख़बर भेज कर के देवदत्त पण्डित को आश्वस्त कर देँगे कि कोदई बाबू उनके यहाँ हैँ और वे उनको लेकर चिन्तित न होँ. वस्तुतः दुर्गागंज मेँ एकमात्र टेलीफोन मौलाना रफ़ीक़ुद्दीन के घर पर था और उसका नंबर सिवदीन मास्टर के पास न था. इसके नाते वे अपने सङ्कल्प को तत्काल कार्यरूप मेँ परिणत न कर सके थे और जब उन्होँने पत्र लिखा तो उसमेँ सखेद यह बताने के अतिरिक्त वे कुछ न कर सके कि कोदई उनके यहाँ आये और फिर न जाने कहाँ चले गये. इस शोक मेँ घुलती हुई राजमती पंडिताईन का एक वर्ष के भीतर देहान्त हो गया और सिधिया उसके बाद से शर्म के मारे दुर्गागंज मेँ न आती थी. क्षेपक यहाँ समाप्त होता है.
1.2.4
इस कहानी के समापन पर जब कोदई ने रोते-रोते यह बताया कि उनके पिता का देहान्त होने की सूचना उन्हेँ कल ही मिली है और वे तुरंत घर लौटना चाहते हैँ तो पूरा हाल स्तब्ध था. कहना न होगा कि उनके राजदूत ने उन्हेँ सूचना दी कि उनकी सरकार ने अगली उड़ान से उनके स्वदेश लौटने की व्यवस्था कर दी है.
योँ कोदई बहुत कुछ इस आत्मनिवेदन मेँ छुपा गये थे. उदाहरण के लिए उस प्रेरणा की असलियत उन्होँने नहीँ बतायी जिसने उन्हेँ रातोँरात इलाहाबाद पहुँचा दिया. ख़ैर, पाठकोँ से कुछ छिपा न रहेगा.