आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

दस प्रिय उपन्यास: प्रभात रंजन

हिंदी में, मुझे लगता है पिछले सौ सालों में अनेक उपन्यास ऐसे लिखे गए हैं जो किसी भी पैमाने पर श्रेष्ठ कहे जा सकते हैं. उनमें से अपने १० प्रिय उपन्यासों का चयन करना मुझे बहुत बड़ी चुनौती लगती है. लेकिन कुछ तो अपने अध्ययन की सीमा होती है, कुछ समझ की. अपनी पसंद के १० चुनिंदा उपन्यासों का चयन करने का फरमान प्रतिलिपि ने जारी किया तो दिल को बहुत सख्त करते हुए मैंने यह चयन किया:

(१) गोदान: प्रेमचंद के उपन्यासों में वैसे तो मुझे ‘रंगभूमि’ भी बहुत पसंद है. लेकिन उसका कारण शायद उसका विषय है. ‘गोदान’ की बात ही कुछ और है. एक तरफ होरी जैसा किसान है जो ऋण के जाल में फंसा हुआ है, दूसरी तरफ मेहता-मालती जैसे शहरी बौद्धिक चरित्र हैं. वह मुझे एक भविष्योन्मुख उपन्यास दिखता है. आज जब किसान ऋण के जाल में उलझकर आत्महत्याएं कर रहे हैं तो मुझे अक्सर ‘गोदान’ के किसान याद आने लगते हैं. एक तरह से हिंदी का यह पहला उपन्यास है जिसमें ‘अहा ग्रामजीवन भी क्या है’ के भोलेपन से बाहर निकलने की तड़प दिखाई देती है.

(२) शेखर एक जीवनी: सीतामढ़ी में अपने पहले गुरु मदन मोहन झा के कहने पर वहां के सनातन धर्म पुस्तकालय से मैं अज्ञेय के उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ के दोनों खंड निकालकर लाया था. लेकिन कह नहीं सकता कि उसके पढ़ने का मेरे ऊपर क्या असर पड़ा था. शेखर-शशि के संबंध, शेखर जैसे साधारण-से दिखने वाले पात्र के जीवन की विराट कहानी. पहले खंड ‘उत्थान’ के भूमिका की आरंभिक पंक्ति ‘वेदना में एक शक्ति है, जो दृष्टि देती है. जो यातना में है, वह द्रष्टा हो सकता है’ एक अलग ही लोक में ले गयी थी. नैतिकता-अनैतिकता के द्वंद्व का ही नहीं, निजी-सार्वजनिक के द्वंद्व का भी यह विशिष्ट उपन्यास है, जो घोषित रूप से राजनैतिक भंगिमा भले नहीं अपनाता हो मगर राजनैतिक तौर पर एक सजग उपन्यास है. करीब २५ साल हो गए शेखर को पढ़े आज भी इसकी पंक्तियाँ, बाबा मदन सिंह की सूक्तियां याद आती रहती हैं- दर्द से बड़ा एक विश्वास होता है.

(३) मैला आँचल: फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास ‘मैला आँचल’ के बारे में अगर भावुकता से कहूँ तो यह मेरा सबसे प्रिय उपन्यास है. हालाँकि इसका कारण भी भावुक ही है. इसकी कथा के केंद्र में मिथिलांचल का एक पिछड़ा इलाका है, भारत-नेपाल का सीमांचल, जिसके एक इलाके का मैं भी रहने वाला हूँ. इसकी भाषा में जिस बोली की छौंक लगी हुई है वह मेरी भी बोली है. लेकिन ‘मैला आँचल’ को पसंद करने का बस यही कारण नहीं है. आजादी के टूटते सपने, सामने दिखता कटु यथार्थ, इसकी कथा को महज किसी एक अंचल की कथा नहीं रहने देता है. वह अपने आप में बदलते हुए गाँव की कथा बन जाती है. गहरे राजनीतिक अर्थों में. किस्से-कहानियों के साथ यथार्थ का सुन्दर संयोग इस उपन्यास में दिखता है, वह कहीं और नहीं दिखता. बहुत बाद में जाकर समझ आया कि इसे ‘जादुई यथार्थवाद’ कहते हैं. इतना जीवंत उपन्यास मैंने दूसरा नहीं पढ़ा.

(४) झूठा सच: ‘वतन और देश’ तथा ‘देश का भविष्य’ नामक दो खण्डों में विभाजित यशपाल के इस भारी-भरकम उपन्यास को पढ़ना वैसे तो श्रमसाध्य है. लेकिन जब इसे पढ़ना शुरु किया था तब रुकना मुश्किल हो गया था. सच कहूँ तो भारत-विभाजन पर इतना अच्छा और विस्तृत मैंने कुछ और नहीं पढ़ा. विभाजन के पहले का लाहौर और विभाजन के बाद की दिल्ली दोनों का बारीक चित्रण मन पर अंकित हो गया था, आज तक है.

(५) रागदरबारी: श्रीलाल शुक्ल का यह उपन्यास वैसे तो मुझे सिनिकल लगता है, शायद इसीलिए इस सिनिकल समय में मुझे बहुत प्रिय है. शायद ‘ब्लैक ह्यूमर’ की यह पहली कृति है हिंदी की. सवाल गाँव या शहर का नहीं है आजादी के १५-२० सालों में बने उस समाज का है जिससे किसी तरह की उम्मीद नहीं की जा सकती. ऐसा मारक व्यंग्य, ऐसी भाषा- आज भी मुझे हिंदी यह अपनी तरह का अकेला उपन्यास लगता है.

(६) कसप: मनोहर श्याम जोशी का यह उपन्यास मैंने बीए के दिनों में ऐन परीक्षा के दिनों में पढ़ना शुरु किया था और सच बताऊँ मेरा एक पेपर इसी उपन्यास के कारण खराब हो गया था. प्रेम का ऐसा पाठ हिंदी में दूसरा नहीं है. डीडी, बेबी, जिलेम्बू न जाने कितना कुछ याद रह गया. और हाँ कुमाऊंनी भाषा की मिठास भी. प्रेम के जीवन और उत्तर-जीवन को लेकर लिखे गए इस उपन्यास की मेरे मन में एक खास जगह है, शायद हमेशा रहेगी.

(७) कुरु-कुरु स्वाहा: जब पहली बार इस उपन्यास को पढ़ा था तो इसका भाषाई खेल अपने कुछ पल्ले नहीं पड़ा था, लेकिन दूसरी बार में इसकी भाषा के जादू ने मोहित कर दिया था. एक नायक के तीन व्यक्तित्व, पहुंचेली जैसी नायिका, मुंबई का जीवन, हिंदी के विविध शैलियों की खिचड़ी, यथार्थ के होने न होने का द्वंद्व- हिंदी में मुझे यह उपन्यास अलग ही लगता है. सजग रूप से उत्तर-आधुनिक शैली में लिखा गया शायद यह हिंदी का पहला उपन्यास है. पठनीयता भी गज़ब की और पांडित्य भी.

(८) दीवार में एक खिड़की रहती थी: विनोद कुमार शुक्ल के इस उपन्यास का प्रभाव भी मेरे ऊपर सम्मोहक है. एक साधारण अध्यापक का लगभग ठहरा हुआ जीवन, जिसमें रोमांच बस सपनों के माध्यम से ही आता है. ‘हाथी आगे-आगे चलता जाता था पीछे उसकी ज़मीन छूटती जाती थी.’ साधारण जीवन का यह एक असाधारण उपन्यास है. गहरी काव्यात्मकता लिए.

(९) कलि कथा वाया बाईपास: अलका सरावगी की इस इतिहास-समुदाय कथा ने जैसे नई पीढ़ी की रचनात्मकता का घोषणापत्र लिखा था. अपने समुदाय के अपने इतिहास की तरह लिखे गए इस उपन्यास में ज़बरदस्त किस्सागोई भी है, मारवाड़ी समाज के उत्थान-पतन की दास्तान है और वह कोलकाता है जो जिसमें प्रवासी रहते हैं. भारतीय अंग्रेजी डायस्पोरा लेखन के बरक्स यह देशी विस्थापन की कथा मेरी ही तरह अन्य विस्थापितों को भी अपनी जैसी लगती होगी. शिल्प भी नया-नया सा लगा था तब.

(१०) सात आसमान: असगर वजाहत के इस उपन्यास की चर्चा भले कम हुई लेकिन यह किसी भी पैमाने पर कमतर उपन्यास नहीं है. इसमें मुस्लिम समाज की विराट कथा कहने की कोई भंगिमा नहीं है, लेकिन है यह शिया समुदाय के उत्थान-पतन की कहानी ही. आत्मकथात्मक प्रतीत होने वाले इस उपन्यास में आजादी के बाद के विकास योजनाओं की असफलता की कथा भी कही गई है. नासिर काज़मी की शायरी का जादू इसमें भी उनके नाटक ‘जिस लाहौर…’ की तरह ही बरकरार है. असगर वजाहत के इस उपन्यास में पारंपरिक किस्सागोई अपने उरूज पर है. अभी भी मौका मिलता है तो ‘सात आसमान’ पढ़ने लगता हूँ.

ये दस हैं, बस नहीं.

Tags:

Leave Comment